Book Title: Jan Jan ke Bich Acharya Shri Tulsi Part 02
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta
Publisher: Meghraj Sanchiyalal Nahta

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Page 217
________________ २०६ यह सुनकर कुछेक किसान भाई जिनके लिए आगे के लोगो ने स्थान कर दिया था आगे आकर बैठ गये । पर फिर भी कुछ भाई आगे नहीं आ रहे थे । आचार्यश्री ने प्रवचन आगे नही चलाया। फिर कहने लगेशायद हमारे कृषिकार बन्धु इस संशय मे हो कि उन्हे आगे बैठने का अधिकार है या नही ? पर यहा तो सभी लोगो के लिए एकसमान अधिकार है। इतनी प्रेरणा पाकर आखिर सारे ही किसान वधु आगे आ गये और सभी लोगो के साथ बैठकर प्रवचन सुनने लगे । आचार्यश्री ने एक तृप्ति का श्वास लिया और कहने लगे-मुझे ऐसी ही सभाओ मे प्रवचन करने मे आनन्द आता है जिसमे किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो। प्रवचन मे आचार्यश्री ने एक प्रसग पर कहा-"हम आज इतनी दूर से चल कर आए है अत कुछ लोग कहते हैं आप आराम कीजिये । पर हमने जिस गाव की रोटी खाई है उसका कुछ-न-कुछ तो प्रतिदान करना ही चाहिए। मैं इसे बदला नही मानता हू कि साधुनो को प्रतिदान करना ही चाहिए । किन्तु शारीरिक दृष्टि से भी यह आवश्यक है कि परिश्रम के बिना भोजन आखिर पच कैसे सकता है ? और साधु की तो परिभाषा ही यही है कि "सानोति स्वपरकार्याणि" जो अपने और पराये दोनो का हित-साधन करता है वही साधु है । इसलिए भले ही मैं चलकर आया हू; उपदेश देना मेरा धर्म है और वह मुझे निभाना ही चाहिए । लोग कहते हैं आप आज ही तो आये है और आज ही चले जाएगे । पर हमारे सामने प्रश्न समय का नही काम का होना चाहिए । मैंने तो अपने जीवन का एक लक्ष्य ही बना लिया है कि "समय कम और काम ज्यादा"। एक प्रश्न के उत्तर मे कि "आप किस धर्म को अच्छा मानते हैं ?" आचार्यश्री ने कहा-यद्यपि जैन धर्म के प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है पर

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