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२४-३-६०
कल पुन यात्रा का प्रारभ होने वाला है । अत आज रात मे यहा के नागरिको द्वारा विदाई का एक छोटा-सा कार्यक्रम रखा गया था । साथ मे कवि गोष्ठी तो थी ही । अत दोनो ही कार्यक्रमो का उपसहार करते हुए आचार्यश्री ने स्थली प्रदेश के किनारे पर आकर यहा के मानस का जो चित्रण किया वह सचमुच ही चिंतनीय है। प्राचार्यश्री ने कहा"हम देश के अनेक प्रान्तो मे घूमे है पर राजस्थान स्थली प्रदेश मे जैसा शिक्षा का प्रभाव देखा वैसा वहुत ही कम स्थानो मे देखा। कही-कही तो छोटे-छोटे गावो मे भी हमने दो-दो तीन-तीन कॉलेज तक देखे । पर यहा बडे-बडे गावो मे भी कही-कही तो उच्चतर विद्यालय भी अप्राप्य हैं। जो थोडे बहुत लोग शिक्षित है वे भी अपनी शिक्षा का सदुपयोग बहुत ही कम करते है। मैंने देखा है शिक्षित लोग भी अशिक्षित लोगो की ही तरह दूसरो की आलोचना मे अधिक रस लेते है । जहा दूसरे-दूसरे क्षेत्रो मे अणव्रत-आन्दोलन को लेकर वडी भावात्मक चर्चाए चलती थी वहा यहा उसके नाम से ही लोगो मे एक अन्य प्रकार की भावना व्याप्त हो जाती है । सचमुच ही यहा के जीवन मे एक प्रकार की ऐसी अलस और आलोचना वृत्ति है जो यहा के जीवन को पीछे धकेल रही है । यही प्रदेश एक समय मे काफी समुन्नत प्रदेश था, पर जव से यहा आलोचना वृत्ति ने स्थान लिया है यहा सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक सभी दृष्टियो से ह्रास ही ह्रास हुआ है । "निंदामि गर्हामि" -मैं निंदा करता हू, गाँ करता हू । पर वह निंदा और गर्हा दूसरो की नही होनी चाहिए अपनी ही होनी चाहिए। इसलिए स्थली प्रदेश से आगे जाते समय मैं यहा के