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मुनिश्री मोहनलालजी कुछ काम के लिए अपरिचित घर मे वृक्ष की छाया के नीचे बैठने के लिए गृहस्वामिनी से अनुमति लेने लगे तो वह हडबडा ___ और आश्चर्यपूर्वक कहने लगी-महाराज | हम तो भाभी-अस्पृश्य
___ हमने कहा-वहन । तुम भाभी हो तो क्या मनुष्य तो हो ?
वन-हा, मनुष्य तो है पर आप हमारे स्थान पर कैसे ठहर सकते
हम-क्यो इसमे क्या आपत्ति है ? वह और भी दग रह गई? यह समझ कर कि शायद महाराज हमारी जाति से अपरिचित हैं।
कहने लगी-महाराज! हम तो अछूत है। हमने कहा-बहन । अछूत आदमी होता है कि उसकी बुराइयां ?
बहन - अछूत तो महाराज वाइया ही होती है पर हमारे गुरू तो हमे यही समझाते है कि तुम शूद्र हो अत तुम्हे सवर्ण लोगो से दूर रहना चाहिए । ब्राह्मण, वैश्यो से दूर रहना चाहिए। इसलिए महाराज हम मापसे कह रहे हैं । आप यहा हमारे घर कैसे ठहरेंगे?
हमनही बहन | हम लोग मनुष्य मनुष्य मे भेदभाव नहीं करते ।। धर्म तो मनुष्य को मिलाना सिखाता है, तब उसमे भेदभाव कैसा? इसलिए अगर तुम्हारी अनुमति हो तो हम यहा कुछ देर ठहरना चाहते है ।
वन-खुशी से ठहरिए महाराज | हमे इसमे क्या आपत्ति है ? हमारे तो अहोभाग्य है कि आप हमारे घर को पवित्र करना चाहते है ।। पर महाराज | आप इसका ध्यान रखियेगा कि कोई आपको क्रिया-चूक नही कह दे।
हम- हमे इसकी परवाह नहीं है । अच्छा काम करते हुए भी यदि कोई बुरा मानता है तो हम उसका क्या कर सकते है ? और हम उसके