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मकान में ठहर गये । इधर-उधर से याते हुए भाई हमे वडी शका की दृष्टि से देखने लगे । समझने लगे कि महाराज कहा बैठे हैं ? पर हमे उनकी कोई परवाह नही थी । कुछ बहनो ने तो जो स्वय मेघवाल थी हमे कहा कि महाराज | यह तो भाभियो का घर है पर हमने उन्हे समझाया तौ वे समझ गई और हम अपना काम करते रहे ।
बीच-बीच मे गृहस्वामिनी जो एक प्रौढ महिला थी चर्चा छेड देतीमहाराज | आपके गुरु कौन हैं ?
हम - हमारे गुरू ग्राचार्यश्री तुलसी हैं जो आज यहा तुम्हारे गाव मे ये हुए हैं। क्या तुमने उनके दर्शन नही किये ?
बहन नही ।
हम क्यो ?
बहन — इसलिए कि हम नही जानते कि वहां जाने का हमारा अधिकार है या नही ।
हम - वहा तो सबका अधिकार है और वह साधु ही क्या जो मनुष्य को अछूत कहकर उसका तिरस्कार करे ।
बहन पर क्या आचार्यश्री हमसे बोलेंगे ?
हम क्यो नही ? तुम कहोगे तो हम तुम्हारा परिचय प्राचार्यश्री से करा दें ।
बहन - तब तो महाराज आचार्यश्री बडे पहुचे हुए महाराज हैं। हमारे गुरू तो ऐसे नही हैं । वे हमारे से रुपये पैसे भी लेते है और अछूत कहकर हमारा अपमान भी करते हैं ।
हम-तब तुम उनको गुरू मानते ही क्यो हो ?
बहन - तो क्या करें महाराज । निगुरे (विना गुरू वाले) की गति ही जो नही होती ।
हम-ऐसी बात नही है हमारी दृष्टि से गति हो सकती है पर कुगुरे की गति नही हो
तो निगुरे की तो फिर भी सकती। भला वह क्या