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२७-२-६०
प्रात काल विहार से पहले आचार्यश्री अन्तःपुर मे ठकुरानियो को दर्शन देने गये। उनसे पूछा- रात मे तुम लोगो ने उपदेश सुना था ? वे कहने लगी-महाराज ! हम लोग घर से बाहर कैसे जा सकती हैं ? आचार्यश्री के अधरो पर स्मित खेलने लगा। शायद इसलिए कि भारत आज नव-प्रकाश से प्रभासित होने जा रहा है और यहा अब तक उसकी पहली किरण ने भी प्रवेश नहीं पाया है। बीसवी सदी के इस उन्मुक्त वातावरण में भी ये बहने महलो के जो केवल खण्डहर मात्र रह गये हैं, सीखचो मे बन्द पडी है । पर फिर भी उनका अन्त करण शुद्ध था। प्राचार्यश्री ने उन्हे एक भजन सुनाया और बताया कि साधु कौन होता है ? कुछ बहनो ने विविध प्रतिज्ञाए भी की। कुछ वहनो ने अणुव्रतो को भी ग्रहण किया। तथा कुछ वहनो ने आचार्यश्री को गुरू-रूप मे स्वीकार किया । कौन कहता है जैन धर्म केवल प्रोसवालो के ही लिए है ? .
इस सारी स्थिति का श्रेय गगाशहर निवासिनी पान बाई को है। वह अपने ढग की एक अच्छी श्रम-शीला कार्यकर्ती है । ठेठ कलकत्ते से वह प्राचार्यश्री की पदयात्रा में साथ रही है । जहा भी आचार्यश्री गए वहा वह पीछे नहीं रही। रास्ते मे कई बार वह अस्वस्थ भी हो गई, उसके पैर भी सूज गये पर उसने वाहन का कभी प्रयोग नहीं किया। उपवास, सामायिक, स्वाध्याय आदि भी वह नियमित रूप से करती थी। उसका जीवन सब तरह से स्वावलम्वी है। दूसरे सव आश्रय उसके लुट चुके है तव वह किसी पर निर्भर रहती भी तो कैसे? अपने सारे दैनिक कार्यक्रम