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२६-२-६०
सर्दी विदा ले रही है और गर्मी प्रवेश कर रही है। दिन में कंडी धूप पडती है और रात में मीठी-मीठी ठड । सक्रमण-वेला मे खतरे तो होते ही है। इसीलिए अनेक साधु ज्वर की चपेट में आ गये। हमारे "सहाय" मे कुछ साधु ज्वर ग्रस्त हो गये थे। तृतीया तक बौदासय पहुचने का निर्णय पहले ही हो चुका था अत यहां अधिक ठहरने का तो प्रश्न ही नहीं रहा । आचार्यश्री तो आज प्रात काल ही यहा से विहार कर देना चाहते थे। पर श्रावको के अत्यन्त प्राग्रह के कारण यहा से आज साय तीन मील का विहार कर लूनासर आये । ज्वरग्रस्त साधुओं को तो यही छोडना पडा। थावको ने इस आधे दिन के लिए भी इतना जोर लगाया कि जितना शायद महीने के लिए भी नहीं लगाना पड़े। समय पर छोटी चीज भी बड़ी हो जाती है। __आज अष्टमी थी अतः आचार्यश्री को साय पाहार की आवश्यकता नही थी। राजलदेसर से पानी लेकर चले थे उसे लूनासर तक पी लिया। सूर्यास्त तक शेष पानी को समाप्त कर सभी सत एक छोटी सी कुटिया में गुरुवन्दन के लिए पहुचे । गाव छोटा था और सत अधिक थे । अतः आचार्यश्री ने पहले ही आदेश दे दिया कि सब साधु अपने-अपने सोने के लिए स्थान की खोज कर ले, नहीं तो फिर रात में ठिठुरना पड़ेगा। हम लोग बहुत सारे स्थान देख आये थे पर उसके पास ही जहा प्राचार्यश्री सोने वाले ये एक छोटी-सी कुटिया और थी। वह कुछ गर्म भी थी। और उसी व्यक्ति की थी जिसकी दूसरी कुटिया में आचार्यश्री स्वय सोने