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वृद्धावस्था मे भी उनके तप. स्वाध्याय का क्रम अनवरत चल रहा है। जैसे कि पातजल मे कहा गया है-"कायेन्द्रिय शुद्धिरशुद्धि-क्षयात् तपसः" बदनाजी का शरीर भी तपोभिषिक्त होकर कातिमान हो गया। इस वृद्धावस्था मे भी उनका क, ख, ग सीखना प्रारभ है। जो निश्चय ही समाज के वृद्ध लोगो के लिए एक मार्ग-दर्शन जैसा है। प्रौढ-शिक्षण की दृष्टि से यह उदाहरण अत्यन्त मोहक है। अपने आगन मे आज अपने विजयी पुत्रो के चरणो के रज-करणो का स्पर्श पाकर जैसे उनकी चिर-मौन साधना आज मुखरित हो गई थी। वे कहने लगी-आचार्यप्रवर ! आपने तो मुझ बुढ़िया को भुला ही दिया । बहुत दिनो के बाद आज मुझे इस मुख-दर्शन का अवसर मिला है । प्राचार्यश्री ने भी इस भावना को व्यापक बनाकर कितना सुन्दर समाधान किया था। कहने लगे-आपके लिए तो ये सारे साधु-साध्विया पुत्र-पुत्रीवत् ही है । अत भले मैं यहा देरी से आया हू, पर मैंने समय-समय पर साधु-साध्वियो को तो भेजा ही है।
पर वे तो आज सभल ही नहीं रही थी। हर्ष गद्गद् गिरा मे कुछ कहना चाहती थी । पर शब्द जैसे भावो की गरिमा को सहने मे असमर्थ हो रहे थे। कुछ साध्वियो ने उन्हे सुझाया आप ऐसा निवेदन करें। पर प्राचार्यश्री ने उन्हें रोक दिया। कहने लगे--तुम अपनी बनावट रहने दो । इनके मानस के जो प्राकृतिक भाव है वे ही मुझे अच्छे लगते हैं । कृत्रिमता मे वह मिठास नही होता जो प्रकृति मे रहता है । ___ अत मे प्राचार्यश्री ने अपनी यात्रा के अनेक मधुर सस्मरणो से उपस्थित लोगो को मत्र-मुग्ध बना दिया। लोग चाहते थे जैसे यह अमित अमृत-वर्षण अविराम होता ही रहे । पर समय तो अपनी गति से चलता ही जाता है । अत. आचार्यश्री को कार्यक्रम भी सम्पन्न करना ही पड़ा।