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जैसा कि आचार्यश्री ने सरदारशहर मे घोषणा की थी कि इस बार संघ संगठन का सारा कार्य बीदासर में ही होगा। आचार्यवर व्यस्तता के साथ इस कार्य में निमग्न हो गए। साधु-साध्वियो की पूछताछ के अतिरिक्त कई प्रकार की आन्तरिक गोष्ठियां भी इस प्रवास मे चली। साहित्य को सवर्धन देने की दृष्टि से अनेक साहित्य-गोष्ठियां भी आचार्यश्री के सान्निध्य में तथा अन्यान्य सतो के सान्निध्य में भी चली। साधुओं में आत्म-भाव को विकसित करने के लिए कुछ आध्यात्मिक चर्चाएं भी चली। कुछ गोष्ठियो में आचार्यश्री ने अपने कलकते के अनुभव भी सुनाए । पर वीदासर के दिनो के प्रवास में आचार्यश्री का अधिक समय संघ-व्यवस्था में ही गुजरा। पश्चिम रात्रि को चार बजे से लेकर रात के दस बजे तक और कभी-कभी तो बारह बजे तक भी प्राचार्यश्री को साधुओ की पूछताछ में अपना समय देना पड़ता।
सघ की व्यवस्था की दृष्टि से फाल्गुन सुदी ११ का दिन एक अविस्मरणीय दिन था। उस दिन आचार्यश्री के अनुशास्ता स्वरूप को देखकर अनेक लोगो के कलेजे कापने लगे। कुछ साधुमो के अनुचित व्यवहार तथा आचार-शिथिलता को लेकर आचार्यश्री ने परिपद के वीच उन्हें कड़ा उपालम्भ दिया तथा दोसाधुओ को तो सघ से पृथक ही कर दिया । आचार्यश्री ने कहा-मुझे संख्या से मोह नहीं है। चाहे हमारे सध में कम साधु भी क्यों न रह जाए पर जो रहे वे आचारवान् तथा श्रद्धाशील होने चाहिए।