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प्रथम प्रहर में एक विद्यार्थी (विजयसिंह) मेरे पास आया और एक पत्र मुझे दिखाया । कहने लगा-मैं इसे आचार्यश्री के सामने परिषद् में पढना चाहता हूं। मैंने पत्र पढा तो मुझे लगा शायद इसे परिपद् मे पढना उचित नहीं होगा। प्रत मैंने उसे सुझाव दिया तुम इसे परिषद् मे मत पढो क्योकि उसमे कुछ ऐसे सुझाव रखे गये थे जो हमारी वर्तमान पद्धति पर सीधे चोट करते थे । यद्यपि उसने अपने सुझाव वडी नम्रता से रखे थे पर फिर भी मुझे लगा परिपद् में उसकी प्रतिक्रिया उचित नही होगी। अत मैंने उसे सुझाव दिया तुम इसे परिपद् मे पढोगे तो सभवत' लोगो मे तुम्हारे प्रति भावना अच्छी नहीं होगी। अत तुम इसे आचार्यश्री को एकान्त मे ही निवेदन कर दो। वे वडे क्षमाशील हैं। तुम्हारे सुझावो का समुचित समादर करेंगे। उसके भी यह बात जच गई और उसने मध्याह्न मे एकान्त मे प्राचार्यश्री को अपना पत्र पढा दिया। आचार्यश्री ने उसे पढा तो कहने लगे---तुम इसे परिषद् मे पढ सकोगे ? वह तो तैयार था ही। अत उसी समय पत्र को परिषद् मे पढ दिया। मैंने जब सुना तो अवाक रह गया। विचार आया आचार्यश्री कितने सहिष्ण है जो अपनी प्रतिकूल वात को भी सुनते है-पढते हैं और इतना ही नहीं उसे परिपद् मे रखने में भी सकोच नहीं होता। उस बात का उस विद्यार्थी पर भी वडा अनुकल प्रभाव पड़ा और वह प्रशात चेता होकर मेरे पास पाया और मुझसे सारी बाते कही। मैंने देखा-सचमुच यही एक ऐसा गुण है जो प्राचार्यश्री के विपरीत लोगो को भी उनके समर्थको मे परिणत कर देता है। __ मध्याह्न मे विद्याथियो की एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। पर प्राचार्यश्री आजकल समागत साधु-साध्वियो की देखभाल मे इतने व्यस्त है कि उन्हें बहुत ही थोडा अवकाश मिल पाता है। इसीलिए
आहार के वाद अविराम इसी कार्य में लगे रहते है। यही कारण था कि गोष्ठी मे वे अपना समय नहीं दे सके।