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२६-१२-५६
ब्राह्म मुहूर्त मे स्वाध्याय चल रहा था। अन्य-योग-व्यवच्छेदिका के तेरहवे श्लोक मे हम लोग "तद् दु ख माकालखलायित वा, पचेलिम कर्म भवानुकूल" ऐसा पाठ पढा करते है । तदनुसार आज भी वही पाठ पढा गया । यद्यपि इसका अर्थ ठीक से तो नहीं बैठता था पर तो भी ठोकपीट कर किसी प्रकार से अर्थ तो विठाना ही पड़ता था। किन्तु आज स्वाध्याय करते-करते मुनि श्री नथमलजी के एक नया ही अर्थ ध्यान मे आ गया। उन्होने कहा-यहा 'तद् दुषमाकाल खलायित वा पचेलिम कर्म भवानुकूल' ऐसा पाठ उपयुक्त लगता है। पुरानी लिपि के अनुसार मूर्धन्य 'प' और 'ख' को एक ही प्रकार से लिखा जाता था तथा कहीकही दोनो का उच्चारण भी 'ख' की ही तरह होता था। इसीलिए प्रतियो मे 'ष' को 'ख' बना दिया गया। इसी तरह 'दुषमा' को 'दुखमा' बना दिया गया और फिर वह सर्व प्रचलित हो गया ऐसा लगता है ।
प्राचार्य श्री ने कहा-हा ठीक तो यही लगता है । मुझे भी कुछ-कुछ रडकन रहा करती थी, आज यह अर्थ विल्कुल ठीक बैठ गया है । भाषा
और लिपियो मे किस प्रकार परिवर्तन आ जाते है। फिर उनसे अर्थ का अनर्थ कैसे हो जाता है इसका यह उदाहरण है । न जाने इस प्रकार कितने स्थानो पर भ्रातिया होती होगी। पर मनुष्य के ज्ञान को भी धन्यवाद है कि वह फिर से उन्हे सुधार लेता है । यह कहते-कहते प्राचार्य श्री शब्द सागर की गभीरिमा मे गोते लगाने लगे।।
प्रात काल मार्ग मे एक जगह कुछ ईक्षु-रस मिला था। आचार्य श्री