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१०-२-६०
झुपा मे एक मुस्लिम भाई आचार्यश्री के दर्शनार्थ आया। कुछ वातचीत भी उसने की। तृप्ति भी उसे हुई। जाते जाते वोलाआचार्यजी ! यदि आपको एतराज न हो तो मैं चरण स्पर्श करना चाहता हूँ। मैं मुसलमान हू अत. मेरे स्पर्श करने से आपको स्नान तो नही करना पड़ेगा? आचार्यश्री थोडे से मुस्काए और बोले-मनुष्य की महत्ता उसकी मनुष्यता मे है । वहां जाति, वर्ण और रंग का कोई प्रश्न नही उठता । घटना साधारण थी पर अपने पर वह जो भार युगो से ढोकर ला रही थी उसने उसे असाधारण बना दिया । ___ वहा से राजगढ चौदह मील दूर था। मार्ग मे आठ नौ मील पर कोई गांव नहीं था। केवल रेलवे लाइन पर काम करने वाले हरिजनो के पाचछ. छोटे-छोटे क्वार्टर थे । आचार्यश्री ने तो वहा रहने का निर्णय कर लिया, पर हरिजन भाई जरा सकोच कर रहे थे । वे सोच रहे थे-एक महान् सत हमारे छोटे-छोटे घरो में कैसे ठहरेगा? पर जिसने प्राणी मात्र मे समत्व बुद्धि की घोषणा की है वह इन छोटे-छोटे जातीय झगड़ों मैं कैसे उलझ सकता था ? आखिर आचार्यश्री वही ठहरे। प्रवन्धको ने जी जान से सेवा करने का प्रयास किया। वे सारे अनुकूल साधन जुटा सके या नही अथवा जुटा सकते थे या नहीं यह प्रश्न इतने महत्व का नहीं था जितने महत्व का उनका भक्ति भरा व्यवहार था।