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एक भाई ने अपनी महोदरी भगिनी की शिकायत करते हुए कहाश्राचार्यवर | यह क्रोध बहुत करती है। बहन स्वयं एम० ए० उत्तीर्ण विदुपी लडकी थी । एल० एल० वी० में वह पढ़ रही थी । इन दिनो आचार्यश्री के दर्शनार्थ आई हुई थी । प्राचार्यश्री ने उसे अवसर पाकर पूछ ही लिया क्यों तुम्हे गुम्मा बहुत श्राता है ?
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बहन- हा, क्रोय तो मुझे या जाना है । छोटी-छोटी बातो पर भी गुस्ता हो जाती है ।
मैं
प्राचार्य श्री क्या क्रोध करना अच्छा है ?
बहन - अच्छा तो नहीं है, पर क्या कम मेरी यह आदत ही हो गई हैं ।
प्राचार्य श्री यह बात अच्छी नहीं है । तुम जैनी पढी-लिखी लड़की को यह कभी शोभा नहीं देता। तुम कुछ देर सोचो अपनी आदत को कैसे छोड सकती हो। उसने नोचने मे काफी नमन विनाया और फिर कहने लगी - प्राचार्यप्रवर । मुझे एक प्रतिज्ञा करवाये |
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प्राचार्य श्री क्या प्रतिजा ?
बहन - एक वर्ष के लिए बिल्कुल गुस्ना नही करना |
आचार्यश्री — पर तुम्हारे लिए क्या यह नभव है कि तुम गुस्सा करना छोड दो ?
वहन -- सभव क्या नही होता मनुष्य के लिए । श्राचार्यश्री- देखना, वडा कठिन काम है ।