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११-२-६०
प्राज आचार्यश्री राजगढ़ में प्रवेश कर रहे थे। राजगढ़ हमारा चिर-परिचित गाव था । अत इस छोर से उस छोर तक न केवल सड़कें ही तोरण द्वारो और झडियो से पाकीर्ण थी, अपितु हजारो-हजारो नागरिको से भी वे सकुल हो रही थी। श्रद्धालुओ का हृदय उछल-उछल कर हाथो मे आ रहा था। आचार्यश्री इससे पूर्व भी अनेक बार यहा आए हैं । परन्तु आज का हृदयोल्लास तो अपूर्व ही था। पहले प्राचार्यश्री तेरापथ के एक प्राचार्य के रूप मे देखे जाते थे अब वे अणुव्रत-आन्दोलन के प्रवर्तक के रूप में देखे जाते हैं । जनता बाह्य आकार को बहुत देखती है अन्तर को देखने का अभ्यास अपेक्षाकृत कम प्रौढ होता है । यदि लोग आचार्यश्री के हृदय को अच्छी तरह से पढ पाते तो शायद उनके अभिनन्दन का क्षेत्र और भी अधिक व्यापक हो जाता।
राजगढ़ के स्वागत समारोह की तैयारी भी प्राचार्यश्री के अनुरूप ही थी। सबसे पहले जब कुछ हरिजनो और नाइयो ने परिषद् के बीच खड़े होकर मद्य पान का त्याग किया तो वातावरण मे एक अभिनव लहर सी दौड़ गई। प्राचार्यश्री का हृदय भी हर्ष से उत्फुल्ल हो उठा ।
नगरपालिका के सदस्यो ने लम्बे समय से चले आते आपसी संघर्ष को मिटा देने का सकल्प कर प्राचार्यश्री का स्वागत किया।
यदि सभी सत लोग सदा ऐसा ही करते चले तो क्या उनके प्रति जनता के मन में श्रद्धा का उद्रेक नही हो सकता?