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पडा । लेकिन उससे भी बढकर जो एक सवेदन मन को स्पृष्ट कर रहा था-वह यह था कि भिक्षुक के दान पाने की अपेक्षा दानी दान देने के लिए अधिक आतुर थे। जहा प्राप्ति की आकाक्षा रहती है वहा हाथ स्वय ही रुक जाता है । इसीलिए तो कहा गया है-त्याग ही सबसे बड़ी प्राप्ति है। हमने अनेक बार देखा है सदावतो मे ढोगी साधु बार-बार पक्ति मे बैठकर दान पाना चाहते हैं। इसलिए उनकी भयकर भर्त्सना होती है । सच्चे साधु कुछ लेना नहीं चाहते तो उनकी मनुहारे होती हैं । तेरापथ समाज की दान-पद्धति सचमुच बडी वेजोड है। वह इसलिए नहीं कि हम तेरापथी हैं पर इसलिए कि उसके कारण दाता दान देकर अपने को उपकृत समझता है।