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१२-२-६० आज का मुकाम शादुलपुर था । आचार्यश्री ने यहा सक्षिप्त-सा प्रवचन दिया। इतने मे एक वृद्ध व्यक्ति खडा हुआ और मद्यपान तथा घूम्रपान त्यागने की प्रतिज्ञा करने लगा । सारी सभा की पाखें उस पर केन्द्रित हो गई और एक आश्चर्य-मिश्रित हर्प-ध्वनि सारे वातावरण मे व्याप्त हो गई। लोग वातें करने लगे वह व्यक्ति जो प्रतिदिन दो वोतलें शराब पीता है, क्या सचमुच ही शराब पीना छोड देगा? अनेक आशकाए मन मे खड़ी हो रही थी । पर क्या प्राशकानो के आधार पर हम व्यक्ति का उचित अकन कर सकते है ? शायद नही । पाशका के लिए भी स्थान है पर उसका क्षेत्र भिन्न है। यदि कोई व्यक्ति प्रात्म-प्रेरित होकर ऊर्ध्वमुख वनना चाहे और उसका अविश्वास ही किया जाये यह आवश्यक नही है। प्राचार्यश्री विश्वास लेते हैं और विश्वास ही देते है । इसीलिए उन्हे सब जगह सफलता के दर्शन होते है । मुनिश्री नथमलजी ने ठीक ही लिखा है-"विश्वास किया जाता है, कराया नही जाता। जो कराया जाता है वह विश्वास नहीं होता।" उपस्थित जनता ने भी इस बात पर इसलिए विश्वास कर लिया कि वह सव प्राचार्यश्री के सामने हो रहा था। एक सत-पुरुष के सामने की जाने वाली प्रतिज्ञा के बारे में सदेह बहुत ही कम होता है । उस व्यक्ति पर भी इतनी परिपद् के बीच प्रतिज्ञा करने से एक वडी भारी जिम्मेवारी आ गई । अब उसके लिए कही खुले मे मद्यपान या धूम्रपान इसलिए असभव हो गया कि उसके परित्याग की साक्षी देने वालो की सख्या इतनी बडी थी कि उसका तिरस्कार नहीं किया जा सकता।