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दृष्टिगत होती हैं । वैसे हमारी परम्परा के अनुसार हमे प्रतिवर्ष चातुर्मासों का निर्धारण करना पडता है । पर उससे प्रसार मे कुछ वाधाए आती हैं, यह अनुभव हो रहा है । जो साधु जिस क्षेत्र मे एक वर्ष चातुर्मास के लिए जाते है, वे दूसरे वर्ष लौट आते हैं या वुला लिए जाते हैं । जो थोडा-बहुत परिचय सम्पर्क होता है वह टूट जाता है। दूसरे साधुओ को पुन परिचय मे उतना ही समय लगाना पड़ता है। दूसरे वर्ष वे भी लौट आते हैं । इस प्रकार प्रसार का क्रम जम नही पाता है। अत अच्छा हो साधु लोग अपनाअपना कार्य-क्षेत्र चुन लें और वही कुछ वर्प जम कर कार्य करे । एक हाथ से होने वाला कार्य कुछ अधिक लाभदायक हो सकता है, ऐसा मेरा विचार है । यदि कोई साधु-साध्वी अपना कार्य-क्षेत्र चनना चाहे तो मैं उनके अनुकूल व्यवस्था करने का प्रयास करुगा। पहले भी हमारे सघ मे ऐसा होता आया है । आज उसे पुनरुज्जीवित करने की आवश्यकता है।' ____साधु-जन काफी थे और जैन-भवन छोटा था। दिन मे तो हम लोगो ने किसी प्रकार अपना काम चला लिया । पर रात्रिशयन के लिए स्थान पर्याप्त नही था । एक आदमी सो सके व्हा दो आदमी वैठ तो सकते है, पर सो कैसे सकते है ? इसीलिए हम कुछ साधुनो को जो दीक्षा-पर्याय मेछोटे थे, सोने के लिए बाहर दूसरे स्थान पर जाना पड़ा। गाव के एक गृहस्वामी ने अपने घर मे हमे रात-रात ठहरने की अनुमति दे दी थी। पर सायकाल सूर्यास्त के बाद जब हम वहा पहुंचे तो गृहस्वामिनी दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई और कहने लगी-हमारे यहा आपके ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं है । एक तरफ तो अधेरा बढ़ता जा रहा था और दूसरी ओर जिस स्थान की आगा लेकर हम आए थे वह स्थान मिल नही रहा था । हम वडी दुविधा मे पड गए । सोचने लगे-आखिर रात कहा विताएगे ? हमने प्रयास किया गृहस्वामिनी को समझाने का-वहन | हम तो साधु लोग है । सदा तो तुम्हारे घर रहेगे नही, रात-रात विश्राम करना चाहते है । प्रात काल अगले गाव चले जाएगे । अत रात-रात के लिए हमे स्थान