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१३-२-६०
मध्याह्न की चिलचिलाती धूप मे प्राचार्यश्री चल रहे थे कि उन्हे एक सवाद मिला "कुछ साध्विया दर्शन करना चाहती है ।" प्राचार्यश्री ने उस सवाद को इसलिए अधिक महत्व नहीं दिया कि साध्विया दर्शन तो कल कर ही चुकी हैं अत. आज क्यो व्यर्थ ही समय बिताया जाए । पर दूसरे ही क्षण उन्हे यह पता चला कि उनके पास पानी नहीं है और वे पानी के लिए आ रही है तो तत्क्षण आचार्यश्री ने धूप मे ही अपने पर रोक लिए । साध्विया आई दर्शन किये और कृतकृत्य हो गई। आचार्यश्री ने वात्सल्य-पूरित शब्दो मे कहा-क्यो पानी चाहिए ? साध्वियो ने इस गभीर घोष मे जलघर के दर्शन किए और निवेदन किया-हमें पानी नही मिला है अतः कुछ पानी की जरूरत है । आचार्यश्री के पास भी पानी की अल्पता तो होगी ही पर हम जल-याचना के लिए विवश हैं।
प्राचार्यश्री ने उसी क्षण साधुओ से कहा-सभी साधु थोडा-थोडा जल साध्वियो के पात्र में डाल दो । साध्वियो ने अपना पात्र आगे कर दिया और साधुओ ने अपने-अपने पात्र में से पानी डालकर उस पात्र को भर दिया। याचना इसलिए हुई कि उसकी अत्यन्त आवश्यकता थी। और उसकी पूर्ति की सभावना ही नही निश्चित विश्वास था। दान इसलिए हुआ कि उसकी अत्यन्त आवश्यकता थी और प्रमोद-प्राप्ति का सभावना ही नही विश्वास था। यदि यही आवश्यकता ओर विश्वास सारे जग मे आच्छन्न हो जाए तो क्या ससार से ऐसा सब कुछ दूर नहीं हो जाएगा जो दु ख शब्द से अभिहित किया जाता है।