________________
६-२-६०
आचार्यश्री वृक्षो से आच्छादित जी० टी० रोड छोडकर जहा काटों और ककरो से परिपूर्ण राजगढ रोड पर चल रहे थे, वहा बडे-बडे आरामदेह महलो और मदिरो को छोडकर किसानो की छोटी तग और अर्घ आच्छन्न झोपडियो मे भी ठहर रहे थे। जैसा आनन्द उन्होने राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपतिजी से मिलकर किया था वही आनन्द वे उन झोपडियो मे गरीब किसानो से मिलकर अनुभव कर रहे थे । सतजन अपनी छोटीमोटी चादरो से शामियाना बना कर सूर्य की प्रचण्ड रश्मियो से अपना बचाव कर रहे थे। वही भोजन और वही अध्ययन । अलग-अलग कमरे वहा कहा से आते। यात्री लोगो पर भी उस क्रिया की प्रतिक्रिया हुए विना नहीं रही । वे भी विना किसी छाया और ओट के सड़क के किनारे पर अपना घर वसाकर मानन्द मना रहे थे । वातानुकूलित भवनो मे रहने वाले व बारामदेह कारो मे चलने वाले व्यक्ति भी धूप और धूल मे विना किसी सकोच के आनन्द मना रहे थे। क्या यह पदार्थ बहुल भौतिकवाद पर परित्याग-पुष्ट अध्यात्मवाद की विजय का एक शुभ-दर्शन नही था ? ऐसा लगता था मानो विज्ञान पर दर्शन के विजय-चिह्न अकित करने के लिए कोई देवदूत ही इस धरा-धाम पर उतर आए हो। आचार्यश्री इतनी तपस्या कर रहे थे तभी तो लोगो मे खुल कर कप्ट सहने की प्रवृत्ति पनप रही थी। सच है पानी जितने ऊचे स्थान से आता है वह उतनी ही ऊचाई तक नलो द्वारा पहुचाया जा सकता है ।
लोगो के आग्रह को नहीं टाल सकने के कारण स्वय आचार्यश्री द्वारद्वार पर भिक्षा के लिए गए। लोगो मे हर्ष का अपार पारावार उमड़