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१-१-६०
सन के हिसाब से आज नए वर्ष का नया दिन है और हमारे लिए नया गाव है। नये लोग है। नये प्रश्न है। नई समस्याए है। आकाश मेघाच्छन्न है और हम चले जा रहे है। बहुत कुछ विचार मन मे उठ रहे है पर इतना समय कहा है जो उन सबको लिखा जा सके । विहार के बाद जो थोडा बहुत समय मिलता है उसमे भोजन पानी सब करना पडता है । भोजन के साथ-साथ कुछ कार्यभार भी वढ जाता है । अपने पात्रो को साफ करना पडता है। फिर उन वस्त्रो को (लुहना) साफ करना पड़ता है जिनसे पात्र साफ करते हैं। दैनिक चर्या तो चलती ही है। थोडा बहुत विश्राम करना चाहते हैं तो आचार्यश्री कह देते है, तैयार हो जानो, चलना है। अभी-अभी ११ मील चलकर आये है तीन और चलना है । साथ-ही-साथ आचार्यश्री ने अध्ययन का एक आकर्षण और वढा दिया है । अत. विश्राम भी गौण हो जाता है। चारो ओर साधुओ के हाथो मे षड्दर्शन, कल्याण-मन्दिर आदि के पत्र देखने को मिल सकते है। सचमुच यह एक चलता-फिरता 'विश्वविद्यालय' है । ये सव कल्पनाए जब मन मे आती है तो मन-मयूर हर्ष विभोर होकर नाचने लगता है । शारीरिक कष्ट तो है ही पर 'घुमक्कडी' का आनन्द भी कम नहीं है।
विहार करके चले आ रहे थे कि वीच मे वर्षा आ गई। आचार्यश्री तो बीच के एक थाने मे ठहर गये थे। साधु लोग आगे चल पडे । भला जिनका चलने का व्रत है उन्हे वर्षा क्या रोक सकती है ? कभी-कभी जब वूदें जोर से आने लगती है तो साधु लोग वृक्षो के नीचे ठहर जाते