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१२-१-६० सेवा का अर्थ शिकायतों की पेटी में
पुराणो मे सुनते है कि सगर राजा को उसके साठ हजार पुत्र प्रतिदिन नया कुआं खोदकर पानी पिलाया करते थे । पर हम तो विना कुआ खुदाए ही आजकल प्रतिदिन नए दूसरे कुए का पानी पीते है । एक कुएं का ही नहीं अपितु दिन में कम से कम दो कुनो का । सुवह कही तो शाम कही । कही आलीशान वगले मिलते है तो कही झोंपडी भी नही मिलती, वृक्षो के नीचे रहना पडता है। जो स्थान मिलता है उसकी सफाई का बड़ा ध्यान रखते है । हम साधु लोग ही नहीं गृहस्थ लोग भी जहा ठहरते है वहां की सफाई का पूरा ध्यान रखते है। आचार्यश्री इस व्यावहारिक सभ्यता को भी विशेष महत्त्व देते हैं । यदि कोई साधु इसमे त्रुटि कर देता है तो उसे तो दण्ड मिलता ही है । अगर कोई गृहस्थ भी इस बात पर पूरा ध्यान नहीं रखता है तो आचार्यश्री उसे भी कडा उलाहना देते हैं । आज एक ऐसी ही घटना हो गई । एक बहन ने अपने ठहरने के पास के स्थान को गदा कर दिया। शिकायत आचार्यश्री के पास पहुची। आचार्यश्री ने उसे उपालंभ देते हुए कहा- तुम इतने महीनो से हमारे साथ रहकर इतनी
ही सभ्यता नही सीखी तो यहा रहकर क्या किया? हमारे साथ रहने का । अर्थ तो यही होता है कि जीवन को सुसस्कृत और सभ्य बनाया जाए । यदि
इतनी छोटी-सी बात को तुम नही समझ सकी तो तुमने सेवा के अर्थ को ही नहीं समझा । सेवा का यही मतलब नहीं है कि केवल मेरा मुह देखते रहना । यद्यपि हम किसी गृहस्थ से शारीरिक सेवा तो लेते ही नही । पर हम लोग जो उपदेश करते है या जो आचरण करते हैं उन पर तो सेवार्थी