________________
२०-१-६० अलीगढ मे आचार्यश्री के स्वागत की जोर-शोर से तैयारियां हो रही थी। सभी वर्ग के लोगो मे एक नवोल्लास व्याप्त हो रहा था। कुछ लोग पैदल चलकर दो-तीन मील तक स्वागत करने के लिए सामने आये थे । शहर मे आते-आते जुलूस काफी बड़ा हो गया। ज्योही हमने रामलीला भवन मे पैर रखा दिग्-दिगन्त जयघोषो से मुखरित हो उठा। आचार्यश्री ने अपना आसन ग्रहण किया कि इतने मे एक ऐसी अप्रत्याशित घटना हुई कि सभा में सन्नाटा छा गया। बाबू रामलालजी जो अभी तक आचार्यश्री के साथ चल रहे थे अचानक पडाल मे गिर पड़े। गिरते ही उनकी हृदय गति रुक गई। उनका पुत्र जो स्वयं डाक्टर था, आया उन्हे इजेक्शन भी दिया। पर उनका चैतन्य किसी दूसरे शरीर को धारण कर चुका था । अत. उनकी चिर-निद्रा को जगाने के सारे प्रयल विफल गये । स्वागत मे आये हुए लोगो को शव-यात्रा में जाना था । अतः स्वागत का कार्यक्रम रात्रि के लिए स्थगित कर दिया गया। केवल आचार्यश्री ने मन्द-मन्द स्वर मे "मोहे स्वाम सभारो" गीतिका गाई तथा जीवन की अचिरता पर प्रकाश डालते हुए कहा-ऐसी मृत्यु मैंने अपने जीवन मे कभी नहीं देखी, वावू रामलालजी सचमुच एक पवित्र व्यक्ति थे । इसीलिए अतिम सांस तक उनका मन ही नहीं बल्कि तन भी सतो के चरणो मे रमा हुआ था। जो उनकी सद्गति का स्पष्ट सकेत है । सचमुच अनेक लोगो को उनकी इस चिर-निद्रा से स्पर्धा हो सकती है।
बाबू रामलालजी अलीगढ़ के प्रमुख जन-सेवियो मे से एक थे । वैसे नगर मे धनवान् तो उनसे और भी बहुत अधिक हो सकते थे । पर सेवा