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आचार्यों को भी वे उतनी ही बात कहते जितनी उपयुक्त होती । उनके शब्द थोडे होते थे तथा भाव गम्भीर होता था। विनय की तो मानो वै साक्षात् मूर्ति ही थे। उनके अनुभव, प्रौढ तथा मार्ग-दर्शक होते थे। सचमुच उन्होने शासन की बडी सेवा की है।
रह-रह कर आचार्यश्री की स्मृतिया जागृत हो रही थी और एक अपार वेदना शब्दो द्वारा बाहर निकलना चाहती थी । अत मे आचार्यश्री ने सभी साधुओ को सम्बोधित कर कहा--"मैं तुमसे उनके गुणो की क्या कहू ? उनके गुण अगण्य थे। कोई भी साधु उन सारे गुणो को धार सके तो मुझे बड़ी खुशी होगी । पर यदि कोई एक नही धार सके तो सघ के -सभी साधु मिलकर उनकी रिक्तता की पूर्ति करें।"
वातावरण मे एक अजीब खामोशी थी। प्रहर रात्रि के बाद भी किसी की उठने की इच्छा नहीं हो रही थी। पर अब हो क्या सकता था? मृत्यु को कौन रोक सकता है ? वह आती है और एक न एक दिन सभी को अपने अक में समेट कर ले जाती है। बहुत देर तक उनकी स्मृतियों का ताता लगा रहा । वह तभी रुका जव नीद ने आकर घेरा डाला।