________________
२४-१-६०
चलते-चलते मेरे पैर इतने घिस गए कि एक पैर मे तो मवाद ही पड़ गया। इन दिनो मे मुझे बडी भयकर वेदना सहनी पड़ रही थी। चलने मे तो कष्ट होता ही था पर रात भर नीद भी नही आती थी। पर मे इतनी जोर से पीडा होती थी कि सारा मन व शरीर काप उठता। आज प्रातःकाल जब आचार्यश्री के पास आया तो आचार्यश्री ने पूछाक्यों आगे चले जानोगे या रुकना पडेगा ?
मैंने कहा-अब तो दिल्ली निकट ही है, चला ही जाऊगा । यहां रुककर क्या करूमा ? वहा अलबत्ता साधन तो सुलभ हो सकेंगे। इसलिए धीरे-धीरे आगे के लिए चल पड़ा । पर आचार्यश्री के पास क्या कुछ हो रहा है, इससे अपरिचित ही हो गया था । __मुनि महेशकुमारजी भी पर की पीड़ा के कारण पीछे रुक गए थे। अतः वे आचार्यश्री से पीछे रह गए । मुनिश्री सम्पतमलजी को भी आचार्यश्री ने इनकी परिचर्या के लिए वहां छोड़ दिया था। वे भी आज विहार कर आ रहे थे। शाम को मुनिश्री सम्पतमलजी उनका सारा बोझ-भार लेकर पाहार पानी की व्यवस्था के लिए आगे आ गए। जहा उन्होने ठहरने का निश्चय किया था। आगे आकर उन्होने सारी व्यवस्था कर ली और महेशकुमारजी की प्रतीक्षा करने लगे। पर महेशकुमारजी शाम तक वहा नही पहुचे। उन्हे बड़ी चिन्ता हो गई। अब क्या किया जाए ? सर्दी का मौसम था, रात के समय हम चल नहीं सकते थे। उधर महेशकुमारजी के पैर का दर्द इतना बढ़ गया था कि वे एक कदम भी आगे