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८-२-६०
___ आचार्यश्री अपने सघ के साथ हिसार से राजस्थान की ओर बढ रहे थे। मध्याह्न का समय था। कडकडाती धूप और साढे आठ मील का विहार । हरियाणे की वह पद दलित धूल अव अधिक पदाघात सहना नहीं चाहती थी । अत पैर रखते ही उछल पड़ती थी एकदम सिर तक। धूलि मे छिपे हुए नन्हे-नन्हे ककर साधुओ के घायल चरणो को चीरकर अपनी पदाक्रान्तता पर रोष प्रकट कर रहे थे। पर प्राचार्यश्री अपने सघ के साथ अबाध गति से अविरल बढते जा रहे थे। ___ चार मील का रास्ता तय कर लेने के बाद आचार्यश्री ने सड़क के इस छोर से उस छोर तक देखा पर कही वृक्ष का नाम तक नहीं था। चूकि चार मील से आगे लाया हुआ पानी हम पी नहीं सकते। अतः आचार्यश्री सोचने लगे-पानी कहा पीया जाए ? इतने में पीछे से एक चमचमाती हुई कार आ गई। कार मे से कुछ दर्शनार्थी (प्रभुदयालजी
आदि) उतरे और आचार्यश्री उसी कार की छाया मे जमीन पर ही कम्बल बिछा कर बैठ गए। मकान तो खैर जगल मे होता ही कहा से, वृक्ष भी नहीं थे। आधी धूप और आधी छाया मे बैठे हुए प्राचार्यश्री मुस्करा रहे थे और पानी पी रहे थे। जो इतनी थोड़ी-सी सामग्री मे भी हस सकता है उसकी हसी को आखिर कौन रोक सकता है ? श्रान्ति और क्लान्ति के स्थान पर वहा शाति और सौम्यता उनके चेहरे पर खेल रही थी। यह उस साधक की साधना का ही प्रभाव था कि कार मे चलने वाला व्यक्ति अपनी ही कार की छाया मे आश्रय पाए हुए सत के