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२२-१-६०
सडक पर तो सबको चलने का अधिकार है । एक मनुष्य को भी और एक पशु को भी । आचार्य श्री चल रहे थे । आगे-आगे एक गाडी चल रही थी । भार से लदी हुई थी । एक स्वयसेवक आगे जाकर गाडी - वान से कहने लगा-गाडी को एक तरफ कर लो । पीछे-पीछे आचार्यश्री ना रहे थे। कहने लगे- बहुत रास्ता पडा है बेचारे बैलो को क्यों तकलीफ देते हो ? हम तो एक ओर से होकर चले जाएँगे । स्वयसेवक चुप रह गया । गाडी अपने रास्ते पर चलती गई और हम एक ओर मुडकर आगे निकलने लगे । आचार्यश्री जब बैलो के एकदम पास आए तो देखा -- गाडीवान बैलो को छडी से पीट रहा है । छडी की नोक मे लोहे की एक सूई लगी हुई है उसे बैलो के कोमल गुप्तागो मे चुभा - चुभा कर वह उन्हें तेज चलने के लिए विवश कर रहा है । आचार्यश्री से यह दृश्य देखा नही जा सका । तत्क्षरण चरण रोक कर गाडीवान से बोले- भैया | बैल बेचारे चल रहे हैं फिर तुम उनके गुप्तागो मे यह सुई क्यो चुभो रहे हो ? गाडीवान ने बात को सुनी अनसुनी कर दी । वह अपनी धुन में ही नही समा रहा था । प्राचार्य श्री भी उस पर कोई असर नही होता देखकर आगे चल पडे । मन मे विचार आते रहे- भारत का ग्रामीण कितना प्रशिक्षित है ? निश्चय ही उसके आर्थिक स्रोत अत्यन्त क्षीरण हैं । पर उसके साथ अशिक्षा भी कम नही है । निर्दयता तो परले सिरे की शिक्षा है । इसीलिए तो शास्त्रो मे शिक्षा को विद्या कहा गया है। विद्या ही मुक्ति का साधन है । जो विद्या नही है वह अविद्या है और अविद्या ही तो बन्धन का कारण है । क्या एक दिन ऐसा आएगा