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हाथी, घोडे, मोटरें सभी उनके साथ थे। एक बडी भारी सोने की मूर्ति भी थी। उसे बडा सजाया जाता था । भक्त लोग उसका दूर से ही दर्शन करते थे । हमने निकट पाकर उनका चरण स्पर्श करना चाहा । महात्माजी से निवेदन किया-भगवन् ! हमको भी भगवान् के चरण-स्पर्श करने की अनुज्ञा दी जाए। पर महात्माजी ने मना कर दिया। हमने उनसे बहुत प्रार्थना की तो बोले-तुम लोग शुद्ध नही हो । तुम्हारा खाना शुद्ध नही है, अत तुम्हे चरण स्पर्श का अधिकार कैसे दिया जा सकता है ? हमने हमारी शुद्धि के अनेक उदाहरण (पहलू) उनके सामने रखे । पर वे तो अपनी जिद्द पर अडे रहे । हम लोग नहीं समझ पाए कि उनकी शुद्धि और अशुद्धि की क्या परिभाषा थी ? हमने देखा मूर्ति को अपने को पर उठाकर ले जाने वाले वे कहार जहा भी जाते तालाव पर जाकर मछलिया पकडते और खाते थे । पर वे अशुद्ध नहीं थे। केवल हम ही अशुद्ध थे। हमे बडी झुंझलाहट हुई आखिर यह शुद्धि और अशुद्धि क्या है ?
आचार्यश्री ने स्पृश्यास्पृश्य की भावना को स्पष्ट करते हुए कहायह सर्वथा अनुचित है । भगवान् तो सभी के होते हैं । वे किसी मे भेदभाव नही रखते । तव कोई उनको छू सके और कोई न छू सके यह भेदरेखा सगत कैसे हो सकती है ? छूआछूत की इस भावना ने भारत का वडा अनिष्ट किया है। सचमुच यह धर्म के ठेकेदारो की मनमानी है । पर इसके साथ-साथ भक्त लोगो मे भी एक कमी रही है। वे ऐसे साधुओं को मानते ही क्यो हैं जो मानव-मानव मे एक भेद-रेखा खीचते हैं ? मैं तो स्पष्ट कहता हू यदि भक्त लोग ऐसे साधुओ का सम्मान करना छोड दें तो वे भी स्वय सीधे मार्ग पर आ जाए । यद्यपि हम लोग मूर्ति-पूजा मे विश्वास नहीं करते, पर कोई व्यक्ति अस्पृश्य है यह हम नही मानते । कोई भी व्यक्ति हमे छू सकता है । इसीलिए हमने अणुव्रत मे एक व्रत