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१६-१-६०
प्राची मे सूर्य ने अपना अस्तित्व व्यक्त किया तो ऐसा लगा मानो चिरविरहिणी पूर्व-दिशा ने प्रिय आगमन पर अपने शीश पर सौभाग्य-विन्दु लगाया है। हम मानो उस शुभ-शकुन की प्रतीक्षा मे खडे हो । अत सूर्योदय होते ही आगे के लिए चल पडे । मौसम प्राय साफ था । वायुमडल स्वच्छ था। तरुगण पर्याप्त प्राण-वायु वितरित कर रहे थे। सूर्य की शुभ्र रश्मिया प्राण तत्त्व विखेर रही थी। सारे शरीर मे एक प्रकार की तरलता छा रही थी। हम मानो हवा मे तैरते हुए त्वरित गति से लक्ष्य की ओर बढे चले जा रहे थे। चलने का आनन्द भी इसी ऋतु मे है । प्रारम्भ मे थोडी सर्दी लग सकती है पर थोडा-सा चल लेने के बाद स्वत. शरीर मे गर्मी हो जाती है और अपने आप पैर आगे बढते जाते है ।
सायकाल कगरोल पहुचे तो बहुत सारे लोग स्वागत के लिए सामने आए। स्थान पर आने के बाद एक भाई आचार्यश्री के पैर दवाने लगे। आचार्यश्री ने कहा--भाई। हम लोग किसी गृहस्थ से शारीरिक सेवा नही लेते। तो वे कहने लगे-आचार्यजी आप तो किसी से सेवा नहीं लेते पर हमारे लिए ये पवित्र चरण कहा पडे है ? थोडा तो हमे भी लाभ उठाने दीजिए। इतनी दूर चलने से आपके सुकोमल चरण थक गए होगे। हम लोगो को यह सौभाग्य फिर कब मिलेगा? उन्हे समझाने मे बडी कठिनाई हुई। सचमुच भवित तर्क की पकड मे नही आ सकती।
ठहरने के लिए प्राय. विद्यालय ही मिलते है। इससे दोनो ओर