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और आचार्यश्री से चाय लाने की आज्ञा मागी । तत्क्षण भाचायश्री के ललाट पर क्यों का प्रश्नचिन्ह अकित हो गया। पूछने लगे-किसके लिए?
मुनि सुमेरमलजी---सुखलालजी मगा रहे है। आचार्यश्री-क्यो? मुनि सुमेरमलजी-उन्हे जुकाम हो गया है । आचार्यश्री-दवाई के रूप में लेते हो ? मुनि सुमेरमलजी-हा।
वे चाय ले आए। मैने पी ली। पर इस लिए कि वह दवाई थी, आज-आज मुझे दूध, दही, मिठाई, मिष्टान्न और तेल की सारी वस्तुओ का त्याग करना पड़ा। यह हमारी सामान्य विधि है जो कोई दवाई लेता है उसे व्यवस्थानुरूप तीन या पाच विगय का वर्जन करना पड़ता है। माल से जगात भारी हो जाती है। इसीलिए जल्दी से कोई दवाई लेना नहीं चाहता। कहा दिन मे दस-दस वारह बारह बार चाय पीने वाले लोग और कहा चाय को भी दवा मानने वाले अकिंचन आचार्यश्री । मुझे याद नही पड़ता वर्ष भर मे ही कभी आचार्यश्री ने चाय पी हो। पिछले वर्ष शाति-निकेतन मे चीनी प्राध्यापक तानयुनसेन के घर से आचार्यश्री ने चाय ली थी। वह तो जरूर पी थी। वह भी उनके विशेष आग्रह पर चीन के अपने ढग से (भारतीय ढग से भिन्न) वनाई गई चाय का स्वाद चखने के लिए।