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साधु आए, दवाई लाने की आज्ञा मागी और पारमार्थिक शिक्षण सस्था मे से होम्योपैथिक दवाइयो की पेटी लेकर चले गए । उनके चले जाने के बाद आचार्यश्री ने सस्था के सयोजक श्री कल्याणमलजी बरडिया को याद किया और उनसे पूछा-तुम लोग दवाइया कहा से लाए हो ? ___ उन्होने कहा-कानपुर से प्रार० एस० माथुर से सुमेरमलजी सुराणा ने ये दवाइया खरीदी थी और जाते समय उन्होने ये दवाइया हमे दे दी थी कि रास्ते में किसी यात्री के गडवड हो जाएँ तो काम आ सके । साधुसंतो के भी काम आ सके। ___ आचार्यश्री ने साधुओ से दवाइया वापस मगवाई और कहा-ये हमारे काम नहीं आ सकती। क्योकि इनके लाने में साधुओ के काम आने की भावना का भी मिश्रण है । अत वापस कर पायो। एक तरफ साधु बीमार थे दूसरी तरफ सिद्धात का सवाल था। आचार्यश्री ने उसी को महत्व दिया जिसे देना चाहिए । व्यक्ति से सिद्धात कई गुना बढकर है।
इत पेटी में एक दवाई वह भी थी जो डा० माथुर ने अपने घर पर प्राचार्यश्री को दी थी। इस भावना से कि वह आगे भी काम आती रहेगी। उसने उसे भी पेटी में डाल दिया । पर आचार्यश्री की आखो से यह कैसे छिपा रह सकता था। इसीलिए न तो आचार्यश्री ने उनमे से दवाई ली और न कोई साधु ने भी। चाय भी दवा है
सुवह तो हम भूखे पेट चलते ही है। इसलिए दूध, चाय का कोई प्रश्न ही नही रहता । आज भिक्षा के समय किसी के यहा चाय वनी थी। उन्होने चाय लेने का आग्रह किया। वैसे साधारणतया हम लोग चाय नही ही लेते है । पर आज मुझे कुछ जुकाम लग गया था। अत मैंने मुनिश्री सुमेरमलजी से कहा-आप थोडी-सी चाय लेते आए। वे गए