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सबको अस्वीकृत कर रहे थे । इतने मे एक स्वर आया - वेदान्त तो स्वतन्त्र - दर्शन है । उसकी कुछ मान्यताएँ नैयायिक दर्शन से मिलती है तथा कुछ जैमनीय दर्शन से आचार्यश्री ने इस उत्तर की स्वीकृति देते हुए कहा - हा यह ठीक है । वेदान्त की षड्-दर्शन मे गणना नही होने का कारण तो यही हो सकता है कि इसका अधिक विकास शकराचार्य के बाद ही हुआ है । शकराचार्य का समय विक्रम की दसवी शताब्दी का है तथा षड्-दर्शन के रचयिता हरिभद्र सूरि का समय आठवी शताब्दी का है । श्रत' स्वभावत. ही उसका षड्-दर्शन ग्रथ मे विवरण नही आ सकता था । वैसे वेदान्त का ब्रह्म सूत्र बहुत पहले ही बन चुका था तथा षड्-दर्शन की टीका में प्रभाकर-पूर्व मीमासक के नाम से उसका कुछ खण्डन- मण्डन भी हुआ है । पर आज वेदान्त का जितना विकसित स्वरूप देखने मे आता है उतना शायद उस समय मे नही था । इसीलिए मुनिश्री नथमलजी की ओर संकेत कर आचार्यश्री ने कहा—श्रव श्रावश्यकता है एक ऐसे दर्शन-परिचय ग्रन्थ की जिसमे हरि - भद्र के बाद की सभी दर्शन-प्रणालियों पर सक्षेप मे प्रकाश डाला जा सके । दर्शन के विद्यार्थियो के लिए यह बहुत काम की चीज बन जायगी । उसमे पूर्वीय तथा पाश्चात्य सभी दर्शनो का परिचय आ जाना चाहिए । कार्लमार्क्स के दर्शन को भी उसमे सग्रहित करना चाहिए । यद्यपि हम लोग आस्तिक है पर हमे नास्तिको का भी अनादर नही करना चाहिए। उनके दर्शन का भी हमे गहराई से अध्ययन करना चाहिए । आचार्य हरिभद्र ने भी तो षड्-दर्शनो मे नास्तिको को वैकल्पिक रूप में स्थान दिया है । अत हमारे लिए भूतवाद का अध्ययन भी आवश्यक है । यद्यपि भिक्षुन्याय करिका मे सक्षेप मे इस विषय पर भी विचार किया गया है । पर वह अति सक्षिप्त है । उसका थोडा वडा रूप विद्यार्थियो के लिए अत्यन्त आवश्यक है ।
तत्पश्चात् प्रार्थना हुई । बडा शात वातावरण था प्रार्थना के लिए.