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आचार्य श्री स्वय पातञ्जल योग-दर्शन कण्ठस्थ कर रहे थे। एक बातचीत के प्रसग मे उन्होने हमे कहा-यद्यपि हम जैन है, पर हमे दूसरे दर्शनो का भी गहरा अध्ययन करना चाहिए। उसके बिना हमारा ज्ञानघट अधूरा रह जाता है । यद्यपि दूसरे दार्शनिक जैन-दर्शन को बहुत कम पढते हैं । पर हमें यह सकीर्णता नही रखनी चाहिए । कुछ लोग समझते है दूसरे दार्शनिक-ग्रन्थों को पढने से अपने सिद्धान्तो मे अश्रद्धा हो जाता है, पर मैं यह नही समझता । हा यह तो सही है कि पहले व्यक्ति को अपने पास वाले दर्शन की खूब गहराई से छान-बीन कर लेनी चाहिए। अन्यथा वह दूसरे दर्शन-ग्रन्थो को भी नहीं समझ पाएगा । पर बिना अध्ययन क्षेत्र को व्यापक बनाए कोई व्यक्ति अपने दर्शन का भी पूर्ण अध्येता बन सकता है यह नहीं कहा जा सकता। मैं तो यह भी चाहता हूँ कि हम दूसरे दार्शनिको को उनके अपने सूत्र-ग्रन्थो से पढ़ें। आजकल प्राय लोग दूसरो द्वारा लिखी हुई आलोचनाओ, व्याख्यानो से दर्शनस्रोतो की गहराई मापना चाहते हैं, पर इससे अध्ययन मे प्रामाणिकता नही आ सकती । इसीलिए बडे-बडे लेखक भी बहुधा इतनी भूले कर बैठते है जो सर्वथा अक्षम्य ही होती है । हमे ऐसा नहीं करना है । हम किसी दर्शन के प्रति अन्याय करना नहीं चाहते । इसीलिए तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता है। __हम ये बातें कर ही रहे थे कि इतने मे एक वकील हनुमानप्रसाद जी कायस्थ अपनी पत्नी तथा एक दूसरी महिला, जो शायद उनकी पुत्रवधू या पुत्री थी, के साथ आचार्य श्री के पास आए। आते ही उन्होने अपनी जेब से दो कोमल कलिया निकाल कर प्राचार्य श्री के चरणो में रख दी आचार्य श्री थोड़े से सकुचाए और बोले-हम लोग किसी भी वनस्पति का स्पर्श नही करते।
वकील-(एकदम अवाक् रहकर) क्यो ?