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है । श्रभी हमारा जो साहित्य का काम चल रहा है वह तो बहुत वर्षो 'पहले ही चल जाना चाहिए था पर हमारा यह प्रसाद रहा कि हम ऐसा कर नही सके । हमारा यह तो सौभाग्य है कि आचार्य भिक्षु तथा जयाचार्य जैसे सहज साहित्यिक प्रतिभा के धनी हमे मिले । पर खेद भी है कि हम उन्हे प्रकाश मे नही ला सके । फूलो मे सुरभि होती है लेकिन यह तो हवा का काम है कि वह उसे प्रसृत करे । प्राचार्य भिक्षु और जयाचार्य ने हमे अमूल्य साहित्य दिया । पर हमारा यह कर्तव्य था कि हम उसे आधुनिक रूप में जनता के सामने रखते । खैर जो हुआ सो तो हुआ । अव भी हमने इस ओर ध्यान दे लिया है । यह हर्ष का विषय है । अपने साधु-साध्वी समाज मे मैं अनेक साहित्यकार देखना चाहता हूँ । यद्यपि उन्होने मेरी कल्पना को हमेशा आकार और रंग देने का प्रयास किया है । पर इस विषय मे मेरी कल्पनाए इतनी विशाल है कि उनका वहुत छोटा-सा भाग ही अभी तक पूर्ण हो सका है । साहित्य सेवा समाज की स्थायी सेवा है । प्रत्यक्ष परिचय तो आखिर सीमित लोगो से ही हो सकता है । साहित्य का परिचय उससे बहुत व्यापक है ।
आगम साहित्य का गुरुतर भार भी हमने कधो पर ले लिया है । कार्य - भार आखिर उसी पर आता है जो कर सकता है । हमारे सामने अनेक कठिनाइयाँ हैं । पर जिस प्रकार हम पिछली कठिनाइयो को पार करते आ रहे हैं उसी प्रकार मेरा विश्वास है हमे आगे भी मार्ग मिलता रहेगा। मुनि वुद्धमल्लजी की एक कविता है न । " चलते है जब पैर स्वयं 'पथ वन जाता है ।"
हमारे गृहस्थ समाज मे साहित्यकारो का प्राय. अभाव-सा ही है । कुछ साहित्यकार व्यक्ति हो गए उससे क्या हो सकता है ? मैं चाहता हू इस ओर भी प्रयत्न होना चाहिए । श्रीचन्दजी ने कितने साहित्यकारो को