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प्राचार्य श्री—क्योकि इनमे भी जीवन होता है। वकील-तो क्या आप भोजन नहीं करते? प्राचार्य श्री-भोजन तो करते ही हैं, नहीं तो जीवन कैसे चलता? वकील-तो क्या उसमे वनस्पति के जीव नहीं मरते ?
आचार्य श्री-हा इसीलिए तो हम कच्ची सब्जी नही लेते । हम ऐसा ही भोजन ले सकते हैं जो उबालकर निर्जीव कर लिया जाता है।
वकील-इसमें क्या अन्तर पड़ा? जीवित वनस्पति नही खाते हैं तो मार कर खा लेते हैं।
आचार्य श्री-नही हम लोग अपने हाथ से किसी जीव को नही मारते।
वकील-तो दूसरो से मरवा लेते होगे?
आचार्य श्री-नही कोई भी हमारे लिए भोजन नही बनाता । सभी लोग अपने-अपने लिए जो भोजन बनाते है उसी मे से यदि कोई हमे देना चाहे तो थोडा-बहुत जैसी इच्छा हो ले सकते हैं।
वकील-आप कितने आदमी है ?
प्राचार्य श्री- हम साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकाएं कुल मिलाकर २०० आदमी हैं ।
वकील-साधु-साध्वी कितने है ? आचार्य श्री सड़सठ। वकील--तो क्या आज आप हमारे घर पर दावत ले सकते हैं ? आचार्य श्री-पर आप हमे दावत कैसे देंगे?
वकील-आप सभी के लिए अभी अपने घर रसोई करवा दूंगा। हमारे घर तो वहुधा संत-मण्डली आती ही रहती हैं। हम उस लम्बी पक्ति को अनेक बार दावत देते ही रहते हैं । मेरा पुत्र जो एम० ए० पास था, अच्छी नौकरी भी थी पर उसने सव कुछ त्यागकर साधु-जीवन अपना लिया । वह भी कई बार हमारे घर आता है ।