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२-१-६०
प्रात काल ११ मील का विहार था। रात्री मे काफी पानी बरसा था। अब भी वादल आकाश मे दौड रहे थे । पर चलना तो था ही । चल पडे । आगे जहा पहुचे तो केवल एक 'डाक बगला' मिला । 'डाक बगला' भी छोटा-सा, केवल छोटे-छोटे चार कमरो वाला । उसमे एक ओर हम ठहरे थे दूसरी तरफ साध्विया ठहरी थी। यात्री लोग भी वर्षा से वचने के लिए वही आते। और जाते भी कहा ? वहा कोई दूसरा मकान था भी तो नही । वडी भीड रही । एक समस्या और थी । रास्ते मे कुछ साधुनो के कपडे भी भीग गये थे । उन्हे भी सुखाना था । पर यह अनुपलब्धि ऐसी नहीं थी जो हमे परास्त कर सके । हमारा जीवन ही अनुपलब्धियो का एक स्रोत है । अत इन छोटी-मोटी बाधाओ को हम गिनते ही नहीं। निरन्तर की बाधाए जीवन को इतना सहिष्ण बना देती है कि 'कुछ' का तो वहा अनुभव ही नहीं होता। अत सव साधु सिमट कर बैठ गये।
थोडी बहुत जो भी भिक्षा हुई उसे साधु-साध्वियो मे वरावर बाट दिया गया । आहार करने के लिए बैठे तो कुछ सकोच हुआ । आचार्यश्री सामने बैठे थे। अपनी मनोवृत्ति के अनुसार हम लोग प्राचार्यश्री के सामने
आहार करने मे जरा सकोच करते हैं। हालाकि इस यात्रा मे हमारा यह सकोच कुछ-कुछ निकल गया है। क्योकि प्राय स्थान की इतनी सकीर्णता रहती थी कि सकोच का निर्वाह होना कठिन हो जाता। आचार्यश्री भी हमे बार-बार इस सकोच को छोड़ने को कहते रहते हैं । अतः वह कुछ-कुछ शिथिल पड चुका था । पर फिर भी हम आचार्यश्री