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हैं । वृक्ष यहा खूब है । वृक्ष नही होते हैं तो प्लास्टिक का कपडा ओढकर
आगे बढते रहते है । प्रकृति रोकना चाहती है । हम रुकना नहीं चाहते। यह संघर्ष है । संघर्ष मे कष्ट तो होते ही है। पर विजय का नशा बहुत बड़ा होता है । उसमे कष्ट गौण हो जाते है । सामने जब वडा लक्ष्य होता है तो मनुष्य छोटे-छोटे कष्टो की परवाह नहीं करता । इसीलिए ऋषियो ने कहा है-अपना लक्ष्य बहुत ऊचा रखो । इतना ऊचा कि जीवन-भर उसे पाने की साध मिट नही पाये ।
थानेदार रामप्रसाद ने कहा-आचार्यजी | जब तक आपका परिचय नहीं होता है तब तक लोग अनेक प्रकार की कल्पनाए करते है। कोई कहता है ये ढोगी है, कोई कहता है ये साधु के वेश मे बदमाश है । पर परिचय हो जाता है तो पता चलता है आपकी साधना कितनी उत्कृष्ट है । सचमुच आपके दर्शन दुर्लभ है । कहा राजस्थान और कहा वंगाल । हम लोगो का सौभाग्य है कि आपने हमे घर आकर दर्शन दिये। ___एक अन्य थानेदार कहने लगे-आचार्यजी | यहा तो सदा चोर और वदमाश ही आते है और उनके स्वागत के लिए काल कोठरिया सदा सन्नद्ध रहती है । पर आज अपने थाने मे एक सत-पुरुष को पाकर सचमुच हम कृतार्थ हो गये है। हमारा यह कारावास आज एक सत निवास बन गया है। ___ अध्ययन का भी एक जबरदस्त नशा है । जव यह नशा चढ जाता है तो दूसरे आवश्यक काम भी कुछ गौण हो जाते है । अध्ययन की धुन मे आज एक साधु साय वदना के पश्चात् बाहर रह गये। थोडा-थोडा अधेरा भी पड़ने लगा। जब वे अन्दर आये तो आचार्यश्री प्रतिक्रमण करने लगे थे। पहला ध्यान-कायोत्सर्ग पूरा हो चुका था । यद्यपि वे बहुत चुपके से आये थे पर प्राचार्यश्री की सजग पाखो से वच नही सके। कहने लगे-अभी तक वाहर ही हो ? प्रतिक्रमण प्रारम्भ नही किया ?