________________
उन्हें बताया-'अणुव्रत गीत' नाम से आचार्यश्री का यह गीत-सग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुका है। दौलतरामजी छाजेड इसकी एक प्रति हमेशा अपने पास रखते है । उसको निकाल कर उन्होने टण्डनजी के हाथो मे समर्पित कर दिया।
टण्डनजी कहने लगे-इसका मूल्य क्या है ?
दौलतराम-मूल्य पचास नए पैसे हैं पर मेरा मूल्य तो अदा हो चुका । आपके हाथो मे जाकर अवश्य ही यह अपने मूल्य से अधिक लाभोपार्जन करेगी।
सचमुच टण्डनजी छोटी-छोटी बातो पर बडा ध्यान देते हैं । अतिथि सत्कार तो मानो उनका सहज गुण है। पिछली बार भी जब हम यहां आये थे तो उन्होने हमे बिना भिक्षा लिए नहीं जाने दिया था और कहने लगे--कुछ भिक्षा लीजिए।
प्राचार्यश्री ने कहा-अभी दो बजे आपके यहा क्या भोजन बना होगा? _____टण्डनजी-- 'मैंने आपके प्रवचन मे सुना था कि आप अपने लिए बनाई हुई वस्तु नही लेते । इसलिए हमने जो अपने खाने के लिए बनाया था उसी मे से आपको दे रहे है। मैंने सोचा-आपको दिए विना क्या भोजन करूँगा? इसलिए अभी तक मैंने भोजन ही नही किया है। मुझे भूखे रहकर भी बड़ी खुशी होगी यदि आप मेरा सारा भोजन लेकर मुझे कृतार्थ करेगे।"
सचमुच इससे बढकर अतिथि सत्कार और क्या होगा? इसलिए उस दिन भी हमे उनके घर से भिक्षा लेनी पडी थी और आज भी उनके यहा कुछ भिक्षा लेनी ही पडी। उनका भोजन वडा सीधा-सादा तथा सात्त्विक होता है। गुड उनका विशेप प्रिय खाद्य है। खादी के तो वे दृढतम आग्रही है । हमे भी उनके घर से खादी का एक थान लेना पड़ा।