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हो गई। ब्रजेन्द्र ने बड़ी भक्ति से प्रार्थना सुनी। फिर कहते लगा-बहिनों से भजन करवाइए।
आचार्य श्री ने पारमार्थिक शिक्षण संस्था की बहिनो को भजन गाने के लिए कहा वे भजन गाने लगी तो ब्रजेन्द्र कहने लगा-नही खडे होकर भजन करवाइये । आखिर उन्हे भी खडा होना पड़ा। बहिनें भजन गाने लगी और वह पास पडी कुर्सी पर ताल देने लगा। शुद्ध ताल तो वह क्या दे सकता था पर उसकी चेष्टा यही थी कि मजीरे बजाने की आकृति वनाई जाए और तबला बजाया जाए। फिर कहने लगा-तवला वजता है न ! इतने मे थानेदार भी आ गये । कहने लगे बजेन्द्र ! क्यो व्यर्थ ही महात्माजी को तग करते हो?
प्राचार्य श्री ने कहा-नही मुझे इसमें जरा भी कष्ट नहीं होता है । यह तो उल्टा मनोविनोद है । आचार्य श्री जानते हैं कि बच्चो की भावनाओं को तोड़ना नही चाहिए। उनके प्रश्नो का भी बरावर उत्तर देते रहना चाहिए । इससे बच्चे मे हिम्मत बढती है। बहुत से माता-पिता अपने बच्चो से अघा जाते है । वे उनकी जिज्ञासामओ का समाधान नही देते । उसकी चचल तथा शिष्ट प्रवृत्तियो को रोक देते है इससे बच्चे का स्वस्थ विकास नहीं हो पाता।
बच्चो का पालन-पोषण भी एक कला है । आचार्य श्री ने अपने हाथो से अनेक वाल-साधुओ का सरक्षण किया है। प्रत. उनमे मातुहृदय का वात्सल्य भी उतनी ही मात्रा में है जितनी मात्रा मे पितृ-हृदय का अनुशासन । दोनो मिलकर उनके नेतृत्व को उदात्त बना देते है ।
थानेदार धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी हैं । उनकी पत्नी भी उतनी ही श्रद्धालु हैं । इसलिए व्रजेन्द्र में भी धार्मिक सस्कार जागृत होने लगे है । वह प्राय. हरि कीर्तनो मे ले जाया जाता है । अत. भजनो के प्रति उसकी स्वाभाविक ही रुचि उत्पन्न हो गई । प्राय. वच्चे योग्य सरक्षण से विकास