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रस पी ही रहे थे कि इतने मे हम भी वहा पहुच गए। साधु काफी थे
और रस थोडा था। अत हमने विचार किया कि आगे निकल जाएं। 'हम यह सोच ही रहे थे कि इतने में एक साधु बिना रस पीए ही आगे निकलने लगे । आचार्य श्री ने उन्हें देखा तो वापिस बुलाया और कहाविना रस पीए ही क्यो जाते हो?
उन्होने कहा-यो ही मैंने सोचा रस थोडा ही है ।
आचार्य श्री-थोडा है तो थोडा-थोडा पी लो। हर वस्तु को वाट कर खाना चाहिए। "असविभागी न हु तस्स मोक्खो' जो सविभाग नही करता उसे मोक्ष नही होता।
हमने सोचा अब हमे तो आगे नहीं जाना है। जितना रस मिला उसको पुण्य-प्रसाद मानकर पी गए । पीछे पता चला कि प्राचार्य श्री ने भी रस की कुछ ऊनोदरी की थी। मन मे पाया आचार्य श्री यदि थोडासा अधिक रस पी लेते तो दूसरो के कितनीक कमी रहती। पर नेतृत्व की कसौटी पर चढने वालो को इन छोटी-छोटी बातो का भी पूरा खयाल रखना पड़ता है। ___ कलकत्ते से चलने के बाद पूरे दिन भर तो विरले ही स्थानो पर ठहरे हैं। प्राय. दिन में दो विहार करते है। विहार भी छोटे-छोटे नही होते । आज भी दो विहार करने थे। पहला पडाव गोपीगज मे था और दूसरा पडाव ऊझमुगेरी मे। दोनो मे ॥ मील की दूरी है। बीच में कोल्हापुर नामक एक गाव और है। वैसे गाव तो और भी बहुत हैं पर कोल्हापुर मे एक विशेष बात है। वहा एक व्यक्ति रहता है। जिसका नाम गोवर्धन है। गोवर्धन कई वर्षों से तेरापथी महासभा का कार्यकर्ता है। चातुर्मास मे वह कलकत्तं ही था। अत हम लोगो से उसका गहरा परिचय हो गया था। अभी छुट्टी मे वह अपने गाव आया हुआ था। उसने जब सडक पर दौडती हुई मोटरो पर आचार्य श्री का नाम पढा तो