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२६-१२-५६
पश्चिम रात्री मे आचार्यश्री प्राय. ४ वजे करीब उन्निद्र हो जाया करते हैं । तदनुसार आज भी उसी समय उठकर बैठ गए । सरदी की राते बडी तो होती ही हैं अत पहले अयोग-व्यवच्छेदिका तथा अन्ययोगव्यवच्छेदिका का स्वाध्याय चला। उसके बाद कल्याण मन्दिर स्तोत्र का शिक्षण प्रारम्भ हो गया। दिन मे हम सभी साधु यात्रा मे व्यस्त रहते हैं और रात्री में आचार्यश्री स्वय हमे स्तोत्रादि कण्ठस्थ करवाते हैं। बहुत सारे साधु आचार्यश्री के चारो ओर बैठ जाते हैं और आचार्य श्री सभी को वाचना देते रहते हैं । इसी क्रम के अनुसार बहुत से साधुनो ने षड्-दर्शन अन्ययोग-व्यवच्छेदिका, अयोग-व्यवच्छेदिका, कल्याण-मन्दिर आदि लघु-स्तोत्र काव्यो को कण्ठस्थ कर लिया है । इस परम्परा से न केवल साधुओ का ज्ञान-कोष ही विवृद्ध होता है अपितु समय का भी सदुपयोग होता है । वे साधु भी जिन्होंने संस्कृत का विशेष अध्ययन ही नहीं किया आजकल दिन-रात यथा समय सस्कृत-पद्यो का उच्चारण करते देखे जाते हैं। चारो ओर अध्ययन का एक सुखद वातावरण छा गया है। जो साधु अध्ययन नहीं कर पाता है वह भी एक बार तो उस ओर जुट पड़ता है । सभवतः कोई भी साधु ऐसा नहीं होगा जो आजकल कुछ-नकुछ अध्ययन नहीं करता हो। इसीलिए शरद-ऋतु की राते आजकल छोटी हो गई है। आचार्यश्री कहा करते हैं--इस व्यस्त यात्रा का हमे इस बार यही लाभ उठाना है । मैंने भी आज आचार्यश्री के पास कल्याण मन्दिर स्तोत्र का शिक्षण प्रारम्भ कर दिया है।
बिहार और उत्तरप्रदेश में शिक्षा का काफी प्रसार है । इसीलिए