________________
जैन पूजान्जलि आत्म क्षितिज की प्राची में सम्यक् दर्शन का सूर्य महान |
जिसे प्रगट करने में तू सक्षम चैतन्य नाथ भगवान ।। चार घातिया चउ अघातिया अष्ट कर्म का करूँ हननादेव.।।९।। ॐ ह्री श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो सम्पूर्ण अष्टकर्म विनाशनाय अर्घ्य नि ।
जयमाला हे जगबन्धु जिनेश्वर तुमको अब तक कभी नहीं ध्याया । श्री जिनवाणी बहुत सुनी पर कभी नहीं श्रद्धा लाया ।।१।। परम वीतरागी सन्तो का भी उपदेश न मन भाया । नरक तिर्यंच देव नरगति मे भ्रमण किया बहु दुख पाया ॥२॥ पाप पुण्य मे लीन हुआ निज शुद्ध भाव को बिसराया । इसीलिये प्रभुवर अनादि से भव अटवी मे भरमाया।।३।। आज तुम्हारे दर्शन कर प्रभु मैने निज दर्शन पाया । परम शुद्ध चैतन्य ज्ञानघन का बहुमान ह्रदय आया ।।४।। दो आशीष मुझे हे जिनवर जिनवाणी गुरुदेव महान । मोह महातम शीघ्र नष्ट हो जाये करूँ आत्म कल्याण ।।५।। स्वपर विवेक जगे अन्तर में दो सम्यक श्रद्धा का दान । क्षायक हो उपशम हो हे प्रभु क्षयोपशम सद्दर्शन ज्ञान ।।६।। सात तत्व पर श्रद्धा करके देव शास्त्र गुरु को मार्ने । निज पर भेद जानकर केवल निज मे ही प्रतीत ठानूं ॥७॥ पर द्रव्यो से मै ममत्व तज आत्म द्रव्य को पहचानें । आत्म द्रव्य को इस शरीर से पृथक भिन्न निर्मल जानें ।।८।। समकित रवि की किरणे मेरे उर अन्तर मे करे प्रकाश । सम्यकज्ञान प्राप्तकर स्वामी पर भावो का करूं विनाश ।।९।। सम्यकचारित को धारण कर निज स्वरुप का करूँविकास । रत्नत्रय के अवलम्बन से मिले मुक्ति निर्वाण निवास ।।१०।। जय जय जय अरहन्त देव जय, जिनवाणी जग कल्याणी । जय निर्ग्रन्थ महान सुगुरु जय जय शाश्वत शिवसुखदानी ।।११।। ॐ हीं श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो अनर्ण्य पद प्राप्तये पूर्णाय नि स्वाहा ।