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श्री देवशास्त्रगुरु जिन पूजन जब सम्यक्त्व पल्लवित होता तो पविवृता आती हैं ।
ज्ञानांकुर की कार्य प्रणाली में विचित्रता आती है ।। निज स्वभाव चैतन्य प्राप्ति हित जागे उर में अन्तरबल । अव्याबाधित सुख का घाता वेदनीय है कर्म प्रबल ।। अक्षत चरण चढाकर प्रभुवर वेदनीय का करूँदमन देव ॥३॥ ॐ ही श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो वेदनीयकर्म विनाशनाय अक्षत नि । मोहनीय के कारण यह चेतन अनादि से भटक रहा । निज स्वभाव तज पर द्रव्यो की ममता मे ही अटक रहा । भेदभाव की खड़ग उठाकर मोहनीय का करूँ हनन देव ।।४।। ॐ ह्री श्री देव शास्त्रगुरुभ्यो मोहनीय कर्म विनाशनाय पुष्प नि । आयु कर्म के बध उदय मे सदा उलझता आया हूँ। चारो गतियो मे डोला हूँ निज को जान न पाया हूँ । अजरअमर अविनाशी पदहित आयुकर्म का करूँशमन ।।देव ॥५॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो आयुकर्म विनाशनाय नैवेद्य नि । नाम कर्म के कारण मैंने जैसा भी शरीर पाया । उस शरीर को अपना समझा निज चेतन को विसराया । ज्ञानदीप के चिर प्रकाश से नामकर्म का करूँ दमन देव ।।६।। ॐ ही श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो नामकर्म विनाशनाय दीप नि । उच्च नीच कुल मिला बहुत पर निजकल जान नहीं पाया । शुद्ध बुद्ध चैतन्य निरजन सिद्ध स्वरुप न उर भाया ।। गोत्र कर्म का धूम उडाऊनिज परिणति मे करूँनमन देिव ।७।। ॐ ह्री श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो गोत्र कर्म विनाशनाय धूप नि । दान लाभ भोगोपभोग बल मिलने मे जो बाधक है । अन्तराय के सर्वनाश का आत्मज्ञान ही साधक है । दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख पाऊँ निज आराधक बना देव ॥८॥ ॐ ही श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो अन्तराय कर्म विनाशनाय फल नि । कमोदय मे मोह रोष से करता है शुभ अशुभ विभाव । पर मे इष्ट अनिष्ट कल्पना राग द्वेष विकारी भाव ॥ भाव कर्म करता जाता है जीव भूल निज आत्मस्वभाव । द्रव्य कर्म बधते है तत्क्षण शाश्वत सुख का करे अभाव ॥