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घ्यवहार नय अभूनार्थ भी है और भूतार्थ भी है ऐसे दो प्रकार का कहा गया है अब केवल व्यवहार नय ही दो प्रकार का नहीं है किंतु ( सुद्धणओ ) निश्चय नय मी शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय के भद से दो प्रकार है एसा गाथा में आये हुए ' दु' शब्द से प्रगट होता
अथ पूर्वगाथायां भणितं भतार्थ नयाश्रितो जीव: सम्यग्दगिटभवति । अथ तु न केवल भूतार्थों निश्चय नयो निर्विकल्प समाधिरतानां प्रयोजनवान् भवति । किंतु निर्विकल्प समाधिरहितानां पुनः पोइषणिका सुब लाभाभावे अधस्तन वणिका सुवर्ण लाभवत्यैषांचित्प्राथमिकानां कदाचित् सांवकल्पावस्थायां मिथ्यात्व विषय कषाय दुध्यान वंचनार्थ व्यवहार नयोपि प्रयोजनवान् भवतीति प्रतिपादयति -
( श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्य वृत्ति ) यहाँ इस पूर्वोक्त गाथा मे कहा गया है कि भूतार्थ नय को आश्रय लेकर ही सम्यग्दृष्टि होता है किंतु इस माथा मे स्पष्टीकरण करते है कि निर्विकल्प समाधि में निरत होकर रहनेवाले सम्यग्दृष्टियों को भूतार्थ स्वरूप निश्चय नथ ही प्रयोजनवान हो ऐसा नहीं है परंतु उन्ही निर्विकल्प समाधिरतों को किन्हीं किन्ही को कभी सविकल्प अवस्था मे मिथ्यात्व विषय कषाय रूप दुर्ध्यान को दूर करने के लिये व्यवहार नय भी प्रयोजनवान होता है जैसे किसी को सोलहवानी के सुवर्ण का लाभ न हो तो नीचे के ही अर्थात पन्द्रह चौदहवानी का सोना भी सम्मत समझा जाता है। ऐसा कहते है -
मुद्धो सुद्धादेसो णायन्वो परममाव दरिसीहि । बवहार देसिदो पुण जे दु अपरमें ठिादाभावे ।। १२ । समयसार
सुद्धों शुद्धनयः निश्चय नयः कथंभूतः सुद्धादेसी शुद्धद्रव्यस्यादेशः कथनं यत्र स भवति शुद्धादेशः । णादन्यो ज्ञातव्यः भावयित्वः कः परमभाव दरसीहि शुद्धात्मभाव दशिभिः । कस्मादिति चेत् यतः षोडषणिका कार्त स्वरलाभ बद भेद रत्नत्रय स्वरूप समाघि काले सप्रयोजने भवति निःप्रयोजनो न भवतीत्यर्थः । बवहार देसिदो व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन