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भाव-संग्रह
अर्थ - रागद्वेष पूर्वक होने वाली मन वचन काय की क्रियाओं में जिन कर्मों का आम्रव होता है वे कर्म उन मन बचन काय की क्रियाओं को रोक देने से फिर नहीं आते । इस का भी कारण यह है कि कर्मों के आने के लिये मन वचन काय की क्रियाएं ही कारण होती है यदि दे क्रियाएं सर्वथा रोक दी जाय तो फिर उन कर्मों के आने के लिये कारण वा आलंवन ही नहीं रहता है । विना आलवन वा कारण के वे कर्म आही नहीं सकते। इसी को संवर कहते है । वह संबर तीनों प्रकार की गुप्तियों से होता है । मन की क्रिया को सर्वथा रोक देना मनो गुप्ति, वचन गुप्ति और काय की क्रिया को सर्वथा रोक देना काय गुप्ति है ।
जा संकप्पवियप्पो ता कम्मं असुइ सुह य दायारं । लखे सुद्ध सहावे सुसंवरो उह्यकम्मस्स ।। यावत्संकल्पविकल्पः तावत्कर्म अशुभशुभदातृ ।
लम्बे शुद्धस्थभावे सुसंवर: उभयकर्मणः ॥ ३२२ ।। अर्थ- इस जीव में जब तक सकल्प विकल्प होता है तब तक शुभ कर्म वा अशुभ कर्म आते ही रहते है । शुभ संकल्पों से शुभ कर्म आते है और अशुभ संकल्प से अशुभ कर्म आते है। जब दोनों प्रकार के के संकल्प विकल्प नष्ट हो जाते है तव शुभ अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का संवर हो जाता है।
पो मणलंकप्पे इंपियवाधारवज्जिए जोवे । लद्धे सुद्ध सहावे उभयस्स य संवरो होई ।। नष्टे मनः संकल्प इन्द्रियव्यापारवजिते जीवे ।
लध्धे शुद्ध स्वभावे उभयस्स संवरो भवति ।। ३२३ ।।
अर्थ- जिस जीव के मन के समस्त सकल्प विकल्प नष्ट हो जाते है, समस्त इंद्रियों के व्यापार नष्ट हो जाते है तथा आत्मा का शुद्ध स्वभाव प्रगट हो जाता है तब दोनों प्रकार के शुभ अशुभ कर्मों का मंवर हो जाता है । इस प्रकार संक्षेप में संबर का स्वरूप कहा ।
आये बंध का स्वरूप कहते है।