Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 489
________________ भाव-सर ___अर्थ- ध्यान करने वाले मुनि जिस ध्यान में द्रव्य पयां को और द्रव्यों को गुणों को पृथक पृथक जानते है उस ध्यान को मनि गज सर्वज्ञ' देव पृथक्त्व नाम का ध्यान कहते है। आग वितर्क कालचरण कहते है। भणियं सुयं पियक्कं वह सह तेण संखु अणवरय । तम्हा तस्स वियक सवियारं युण णिस्सामो ।। भणितं श्रुतं वितर्क वर्तते सहतेनतस्खल अनबरतम् । तस्मात्तस्य वितर्क सवीचारं पुनर्भणियामः ॥ ६४२ । अर्थ- वितर्क शब्द का अर्थ श्रुतज्ञान है जो ध्यान सदा काल श्रुत जान के ही साथ रही उस ध्यान को सविर्तक ध्यान कहते है । आगे सवीचार का लक्षण कहते है। सूशुद्धात्मानुभत्यात्मा भाव श्रुतावलम्बनात् ।। अंतर्जल्पो वितर्कः स्याद यस्मिस्तु सवितर्कजम् ।। अर्थादर्थान्तरे शदाच्छद्वान्तरे च संक्रमः । योगाद्योगान्तरे यत्र सवीचारं ततुच्यते । अर्थात्- एक द्रव्य को छोडकर दूसरे द्रव्य का चितवन करना, एक गुण को छोड़कर दूसरे गुण का चितवन करना और एक पर्याय छोड़कर दूसरे पर्याय का चितवन करना सपृथक्त्व कहलाता है। जिस ध्यान में भाव-थतज्ञान के आलम्बन से अत्यंत शुद्ध आत्मा अथवा शुद्ध अनुभति स्वरूप आत्मा का स्वरूप आत्मा के ही भीतर प्रतिभासमान होता हो उसको सवितर्क ध्यान कहते है। वितर्क शब्द का अर्थ श्रुतज्ञान है जो ध्यान श्रुतज्ञान सहित हो उसको सवितर्क ध्यान कहते है जो ध्यान एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को बदल जाय एक शब्द से होने वाला चितवन दूसरे योग्य से होने लगे उसको संक्रम का वीचार कहते है । पहले शक्ल ध्यान में ये तीनों बातें होती है इसलिये वह शुक्ल ध्यान पृथक्त्व सवितंक सदाचार कहलाता है।

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