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भाव-संग्रह
दपक का प्रकाश मुर्त है फिर भी एक आले में अनंत दीपको का प्रकाश समा जाता है फिर सिद्धा का आत्मा तो अमूर्त है इसलिये एक सिद्ध मे मी अनंत सिद्धों का आत्मा आ जाता है।
आगे मिद्धों का गुण कहते है। सम्भसणाणदसण वोरिय सुहमं तहेव अवगणं । अगुरु लहुअब्बवाहं अलुगुणा होति सिद्धाणं ॥ सम्यक्त्वशानदर्शन वीर्यसूक्ष्म तथेवावगाहनम् ।
अगुरुलघु अव्यावा अष्ट गुणा भवन्ति सिद्धानाम् ।।६९४।। अर्थ- सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन वीर्य सूक्ष्मत्व अवगाहन, अगुरु लघु अव्याबाई ये आठ गुण सिद्धों में होते है । भावार्य- यह संसारी आत्मा अनादि काल से ज्ञानावरणादिक आठों कर्मों से जकडा हुआ है। वे आठों कम सब नष्ट हो जाते है तब सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है । आत्मा मे ऊपर लिखे आठ गुण है और उनको आठों ही कर्मों ने ढक रक्खा था। इसलिये उन कर्मों के नाश होने पर ऊपर लिखे आठ गुण अपने आप प्रकट हो जाता है। मोहनीय : कर्म के नाश होने से सम्यक्त गुण प्रगट हो जाता है, ज्ञानावरण कर्म के नाश होने से अनंत ज्ञान प्रगट हो जाता है, दर्शनावरण कर्म के नाश होने से अनंत दर्शन प्रगट हो जाता है , अन्तराब कर्म के नाश होने से अनंत वीर्य प्रगट हो जाता है, आयु कर्म के अभाव होने से अवगाहन गण प्रगट हो जाता है, नाम कर्म के नाश होने से सूक्ष्मत्व गुण प्रगट हो जाता है, गोत्र कर्म के अभाव से अगरुलप गुण प्रगट हो जाता है और वेदनीय कर्म के अभाव से अव्यावाघ गुण प्रगट हो जाता है इस प्रकार आठों कर्मों के नाश हो जाने से सिद्धो में ऊपर लिखे आठ गुण प्रगट हो जाते है ।
जाणपिच्छइ सपलं लोपालोयं च एक्कहेलाए। सुक्ख सहाय जायं अण्णोयम अंसपरिहोणं । जानाति पश्यति सकल लोकालोकं च एक हेलया। सुखं स्वभाव जात अनुपम अन्सपरिहीनम् ॥ ६९५ ।।