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भाव-संग्रह
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सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों गुणों की पूर्णता हो जाती है अतएव मोक्ष भी अब दूर नहीं रहा, अर्थात् अ इ उ ऋ ल इन पत्र हस्व स्वरों के उच्चारण करने मे जितना काल लगता है उतने ही काल मे मोक्ष हो जाता है।
आग सक्षप से सब गुणस्थानों का स्वरुप कहते है।
मिथ्यात्व गुणस्थान-- मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से अतस्वार्थ श्रद्धा न रूप आत्मा के परिणाम विशेष को मिथ्याल गुणस्थान कहते है। इस मिथ्यात्व गुणस्थान में रहने वाला जीव विपरित श्रद्धान करता हैं और सच्चे धर्म की ओर इसकी रूचि नहीं होती। जैसे पित्तज्वर वाले रोगी को दुग्ध आदि मीठे रस कडवे लगते है उसी प्रकार इसको भी समीचीन धर्म अच्छा नहीं लगता ।
इस गुणस्थान में कमों की एक सौ अडतीस प्रकृतियों मे से स्पर्शादिक, बीस प्रकृतियों का अभेद विवक्षा से स्पर्शादिक चार में और बंधन पांच संघात पांच का अभेद विवक्षा से पांच शरीरों मे अन्तर्भाव होता है इस कारण भेद विवक्षा से सब एक सौ अडतालीस और अभेद विवक्षा से एक सौ बाईस प्रकृति है। सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता सम्यक्त्व परिणामों से मिथ्यात्व प्रकृति के तीन खंड करने से होती है । इस कारण अनादि मिथ्यादृष्टी जीव की वन्ध योग्य प्रकृति एकसौ बीस और सत्त्व योग्य प्रकृति एक सौ छयालीस है । मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थकर प्रकृति आहारक शरीर और आहारक अगोपांग इन तीन प्रकृतियों का बंध सम्यग्दृष्टि के ही होता है । इसलिये इस गुणस्थान मे एक सौ बीस मे से तीन घटाने पर एक सौ सत्रह प्रकृतियों का बन्ध होता है।
सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व समग्मिथ्यात्व आहारक शरीर आहारक आंगोपांग और तीर्थकर प्रकृति इन पांच प्रकृतियों का इस गुणस्थान मे उदय नहीं होता । इसलिये एक सौ बाईस में से पांच घटाने पर एक सौ सत्रह प्रकृतियोंका उदय होता है । तथा एक सो महतालीस प्रकृति योंका सत्त्व रहता है।