Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 517
________________ भाव-संग्रह सासादन गुणस्थान- प्रथमोपशम सम्यक्त्र के काल मे जब अधिक से अधिक छह आवली और कमसे कम एक समय शेष रहता है तब अनंतानुबंधी पाय की किसी एक प्रकृति का उदय होने से सम्यक्त्व 1 का नाश हो जाता है तथा मिध्यात्ववादि होता नहीं इसलिये उस समय जीव सासादन गुणस्थान वाला कहलाता है । वह ३०२ मिथ्यात्व गुणस्थान में एक सौ सत्रह प्रकृतियों का बंध होता था उनमें से उसी मिथ्यात्व गुणस्थान मे मिथ्यात्व हुडक संस्थान, नपुंसक वेद, नरकगति नरकगत्यनुपूर्वी नरकाय असंप्राप्ताष्टपादक संहनन, एकेन्द्रिय जाति विकलत्रय तीन स्थावर आताप सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण इन सोलह प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये एक सौ सत्रह मे से सोलह घटाने पर एक सी प्रकृतियों का बंध इस गुणस्थान में होता है पहले गुणस्थान में एक सौ सत्रह प्रकृतियों का उदय होता है उसमे से मिथ्यात्व आतम, सुक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन पांच प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाति है अतएव पांच घटानें पर एक * सम्पक्व के तीन भेद है। दर्शन मोहनीय को तीन प्रकृति और अनन्तानुबंधी की चार प्रकृति इस प्रकार इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम सम्पक्त्व होता है। इन सातों प्रकृति क्षय होने से जो सम्पक्त्व होता है वह क्षायिक है तथा छह प्रकृतियों के अन्दय और सम्यक् प्रकृति नाम की प्रकृति के उदय होने से जो सम्प *त्व होता है उसको क्षयोपशमिक सभ्यवत्व कहते है । उपशम सम्यक्त्व के दो भेद है एक प्रथमोशन सम्यत्व और दूसरा द्वितीयोपशम सम्यवत् । अनादि मिथ्यादृष्टि के पांच और सादि मिथ्या दृष्टी के सात प्रकृतियों के उपशम होने से जो सम्पवत्व होता है उसको प्रथमोपशम सम्भव कहते है | सातवे गुणस्थान मे क्षायोपशनिक सम्यग्दृष्टि जीव श्रेणी चढने के सन्मुख अवस्था मे अनंतानुबंधी चतुष्टय का विसंयोजन ( अप्रत्याख्यानादि रूप ) करके दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों का उपशम करके जो सम्पत्व को प्राप्त होता है उसको द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते है ।

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