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भाव-मंग्रह
स्थावर अप्रत्याख्यानाबरण की चार, पत्याख्यानावरण की चार, नोकषाय को ना, संज्वलन क्रोच मान माया, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी इन छत्तीस प्रतियों को व्यच्छित्ति हो जाती है । इसलिये इनको घटाने पर शेष किसी दो प्रकृतियों का सत्त्व रहता है।
ग्यारहवां उपशांत मोह गुणस्थान-- चारित्र मोहनीय की इकईस प्रकृतियों के उपशप होने में यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के ग्यारहवां उपशांत मोह नामक गुणस्थान होता है । इस गुणस्थान का काल समाप्त होनेपर मोहनीय के उदय से जीव नीचले गुणस्थानों में आ जाता है।
दशवें गुपास्थान में सत्रह प्रकृतियों का बंध होता था। उनमे से ज्ञानावरण को पात्र, दर्शनावल की चार, अंतराय की पांच, यश: कीर्ति उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है । शेष एक सातावेदनीय का बंध होता है ।
दशवे गुणस्थान में साठ प्रकृतियों का बंध होता है उनमे से एक संज्वलन लोभ की व्युच्छित्ति हो जाती है। शेष उनसठ प्रकृतियों का उदय होता है।
नावें और दशवे गुणस्थान के समान द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी के एकसो ब्यालीस और क्षाधिक सम्यग्दृष्टी के एकसो उन्तालीस प्रकृतियों का सन्द रहता है।
बारहवां क्षीणमोह गुणस्थान- मोहनीय कर्म के अत्यंत क्षय होने से स्फटिक भाजन में रक्खं हुए निर्मल जल के समान अत्यन्त्र निर्मल अविनाशी यथास्यात चारित्र के धारक मुनि के क्षीण मोह मुणस्थान होता है।
इस गुणस्थान में केवल साता वेदनीय कर्म का बंध होता है ।
ग्यारहवें गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियों का उदय होता है उनमे से यज नाराच और नाराच इन दो प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है शंष सत्तावन प्रकृतियों का उदय होता है ।