Book Title: Bhav Sangrah
Author(s): Devsen Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Hiralal Maneklal Gandhi Solapur

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Page 521
________________ ܕ ܕ ܀ माव-सग्रह बंध होता है । पांचवे गुणस्थान में सतासी प्रकृतियों का उदय कहा है उनमें से प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ तिर्यग्गति विगायु उद्योत और नीच गोत्र इस आठ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये इन आठ प्रकृतियों के घटाने पर शेष उनासी प्रकृतियां रह जाती है। उनमें आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग मिलानेसे इक्यासी प्रकृतियों का उदय रहता है | पांचवे गुणस्थान में एक सौ सैंतालीस प्रकृतियों की सत्ता कहीं है उनमें से तिगाय की व्युच्छित्ति हो जाती है इसलिये मंत्र एक सी छयालीस प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी की अपेक्षा से एक सौ उन्तालीस का सत्त्व रहता है । सातवां अप्रमत्त विरत गुणस्थान- संज्वलन और नो कषाय के के मंद होने से प्रमाद रतिसंयम भाव होते है। इस कारण इस गुणस्थानवर्ती मुनि को अप्रमत्त विरत कहते है । इस गुणस्थान के स्वस्थान अप्रमत्त विरत और सातिशय अप्रमत्त विरत ऐसे दो भेद है । जो मुनि हजारों बार छठे से सातवे में और सातवे से छठे गुणस्थान में आवे जावे उसको स्वस्थान अप्रमत्त विरत कहते हैं तथा जो श्रेणी चढने के सन्मुख होते है उनको सातिशय अप्रमत्त विरत कहते है । इसमें इतना और समझ लेना चाहिए कि क्षायिक सम्यग्दृष्टी और द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी ही श्रेणी चढ़ते है । प्रथमोपशम सम्य दृष्टी जीव थोम सम्यक्त्व को छोड़कर क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टी होकर प्रथम ही अनंतानुबंधी कोध मान माया लोभ का विसंयोजन करके दर्शन मोहनीय को तीन प्रकृतियों का उपशम करके यातो द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी हो जाय अथवा तीनों प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टी हो जाय तब श्रेणी चढ सकता है । जहां चारित्र मोहनीय की शेष रही इक्कीस प्रकृतियों का क्रम से उपशम तथा क्षय किया जाय उसको श्रेणी कहते है । उस श्रेणी के दो भेद है। उपराम श्रेणी और क्षपक श्रेणी जिसमें चारित्र मोहनीय की

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