________________
उपसंहार
इस भावसंग्रह ग्रन्थ मे चौदह गुणस्थानों का स्वरूप है । उस स्वरूप में सब गुणस्थानों की क्रियाए भाव आदि बतलाये है, तथापि थोडासा स्वरूप और लिखा जाता है जिसमे उनका पूर्ण ज्ञान हो जाय ।
गुणों के स्थानों को गुणस्थान कहते है, मोह और योग के निमित्त में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रुप आत्मा के गुणों की तारतम्यरूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते है।
वे सब गुणस्थान चौदह है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टी, देश विरत, प्रमत्त विरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्व करण, अनि वृत्ति करण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली. अयोगकेवली ।
इनमें से पहला गुणस्थान दर्शन मोहनीय के उदय से होता है, इसमे आत्मा के परिणाम मिथ्यात्व रूप होते है, चौथा गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम से होता है । इस गुणस्थान में आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का प्रादुर्भाव हो जाता है । तीसरा गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्वरूप दर्शनमोहमोहनीय कर्म के उदय से होता है। इस गुणस्थान मे आत्मा के परिणाम सम्यग्मिथ्यात्व अर्थात् उभय रूप होते है । पहले गुणस्थान में औदयिकभाव, चौथे मुणस्थान में औपशमिक क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव और तीसरे गुणस्थान . में औदयिक भाव होते है। परन्तु दुसरा गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म का उदय उपशम क्षय और क्षयोपशम इन चार अवस्थाओं मे से किसी भी अवस्था की अपेक्षा नहीं रखता है । इसलिये यहां पर दर्शनमोह कर्म की अपेक्षा से पारिणामिक भाव है किन्तु अनंतानुबंधी रूप चारित्रमोहनीय कर्म की अपेक्षा से औदयिक भाव भी कहे जा सकते है | इस गुणस्थान में अनंतानुबन्धी के उदय से सम्यक्स्क घात हो गया है इसलिये वहां सम्यक्त्व नहीं है और मिथ्यात्व का भी उदय नहीं आया है इसलिय